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परिच्छेद ९६
कुलीनता

उत्तम कुल के व्यक्ति में, दो गुण सहजप्रत्यक्ष।
प्यारी 'लज्जा' एक है, दूजा सञ्चा 'पक्ष'॥१॥
सदाचार लज्जा मधुर, और सत्य से प्रीति।
इनसे कभी न चूना, यह कुलीन की रीति॥२॥
सद्वंशज में चार गुण, होते बहुत अमोल।
कर उदार, पर गर्वविन, हँसमुख, मीठे बोल॥३॥
कोरिद्रव्य का लाभ हो, चाहे कर अप का।
बड़े पुरुष तो भी नहीं, करते दूषित नाम॥४॥
देखो वंशज श्रेष्ठजन, जिनका कुल प्राचीन।
त्यागें नहीं उदारता, यद्यपि हों धनहीन॥५॥
कुल के उत्तम कार्य का, ध्यान जिन्हें प्रतियाम।
करे न वञ्चककृति वे, और न खोटे काम॥६॥
वरवंशज के दोष को, देखें सब ही लोग।
ज्यों दिखता है चन्द्र का, सब को लांछनयोग॥७॥
उच्चवंश का निंद्य, यदि, करता वाक्यप्रयोग।
करते उसके जन्म में, आशंका तब लोग॥८॥
तरु कहता ज्यों भूमिगुण, पाकर फल का काल।
वाणी त्यों ही बोलती, नर के कुल का हाल॥९॥
चाहो सद्गुण शील तो, करो यत्न लज्जार्थ।
और प्रतिष्ठित वश तो, आदर करो परार्थ॥१०॥