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परिच्छेद ९७
प्रतिष्ठा

आत्मा का जिससे पतन, करो न वह तुम कार्य।
प्राणों की रक्षार्थ भी, चाहे हो अनिवार्य॥१॥
पीछे भी जो चाहते, कीर्ति सहित निज नाम।
गौरव के भी अर्थ वे, करें न अनुचित काम॥२॥
करो ऋद्धि में भव्य वर, विनयश्री की वृष्टि।
क्षीणदशा में मान की, रखो सदा पर दृष्टि॥३॥
दूषित गौरव से मनुज, त्यों ही लगता हीन।
बालों की कटकर लटे ज्यों हों मानविहीन॥४॥
रत्ती सा भी स्वल्प यदि, करे मनुज दुष्कर्म।
गिरि सम उच्च प्रभाव का क्षुद्र बने वेशर्म॥५॥
स्वर्ग कीर्ति के स्थान में, जो दे वृमा विरक्ति।
जीना फिर क्यों चाहते करके उसकी भक्ति॥६॥
मृतरुचि की पदभक्ति से उत्तम यह ही एक।
निर्विकल्प, निजभाग्य को भोगे नर रख टेक॥७॥
ऐसी कौन अमूल्म निधि, रे नर! यह है खाल।
गौरव को भी बेच जो, रखता इसे संभाल॥८॥
केशों की रक्षार्थ ज्यों, तजती चमरी प्राण।
करे मनस्वी मानहित, त्यों ही महा प्रयाण॥९॥
देख मिटा निज रूप जो, जीवित रहे न तात।
बेदी पर उसकी पढ़ें, भक्ति-पुष्प दिनरात॥१०॥