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परिच्छेद १००
सभ्यता

१—कहते है मिलनसारी प्राय उन लोगों में पायी जाती है कि जो खुले हृ शदय से सब लोगों का स्वागत करते है

२—करुणाबुद्धि और शुभ संस्कारों के मेल से ही मनुष्य में प्रसन्न प्रकृति उत्पन्न होती है।

३—शारीरिक आकृति तथा मुखमुद्रा के मिलान से ही मनुष्यों में सादृश्य नहीं होता, बल्कि सच्चा सादृश्य तो आचार-विचार को अभिन्नता पर निर्भर है।

४—जो लोग न्याय-निष्ठा और धर्म-पालन के द्वारा अपना तथा दूसरों का भला करते है संसार उनके स्वभाव का बड़ा आदर करता है।

५—हास्य-परिहास में भी कटुवचन मनुष्य के मन में लग जाते हैं, इसलिए सुपात्र पुरुष अपने वैरियों के साथ भी असभ्यता से नहीं बोलते।

६—सुसंस्कृत मनुष्यों के अस्तित्व के कारण ही जगत के सब कार्य निद्वन्दरूप स चल रहे हैं। इसमे कोई सन्देह नहीं, यदि ये आर्य पुरुष न होते तो यह अक्षुण्य-साम्य और स्वारस्य मृतप्राय होकर धूल मे मिल जाता।

७—रेती तीक्ष्ण भी हो पर वह युद्ध में लाठी से बढ़कर नहीं हो सकती, ठीक इसी प्रकार आचरणहीन मनुष्य विद्वान् भी हो फिर भी वह सदाचारी से बढ़कर नही।

८—अविनय मनुष्य को शोभा नहीं देती चाहे अन्यायी और विपक्षी पुरुष के प्रति ही उसका व्यवहार क्यों न हो।

९—जो लोग मन से प्रसन्न नहीं हो सकते, उन्हे इस विशाल लम्बे चौड़े संसार में, दिन के समय भी अन्धकार के सिवाय और कुछ दिखाई न देगा।

१०—निकृष्ट-प्रकृति पुरुष के हाथ में जो सम्पत्ति होती है वह उस दूध के समान है जो अशुद्ध, मैले बर्तन में रखने से बिगड़ गया हो।