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परिच्छेद १०३
कुलोन्नति

१—मनुष्य की यह प्रतिज्ञा कि "मैं अपने हाथों से मेहनत करने में कभी न थकूगा" उसके परिवार की उन्नति में जितनी सहायक होती है उतनी और कोई वस्तु नही।

२—श्रम भरा हुआ पुरुषार्थ और कार्यकुशल सद्बुद्धि, इन दोनों को परिपकपूर्णता ही परिवार को ऊँचा उठाती है।

३—जब कोई मनुष्य यह कहकर काम करने पर उतारू होता है कि मैं अपने कुल की उन्नति करूँगा तो स्वय देवता लोग अपनी अपनी कमर कसकर उसके आगे आगे चलते है।

४—जो लोग अपने कुटुम्ब को ऊँचा उठाने में कुछ उठा नही रखते वे इसके लिए यदि कोई सुविस्तृत युक्ति न भी निकाले तो भी उनके हाथ से किये हुए काम में सिद्धि होगी।

५—जो आदमी बिना किसी अनाचार के अपने कुल को उन्नत बनाता है, सारा जगत उसको अपना मित्र समझेगा।

६—पुरुष का सच्चा पुरुषत्व तो इसी में है कि जिसमे उसने जन्म लिया है उस वंश को धन में, बल में और ज्ञान में ऊँचा बनादे।

७—जिस प्रकार युद्धक्षेत्र में आक्रमण का प्रकोप शुरवीर पर पड़ता है ठीक इसी तरह परिवार के पालन-पोषण का भार उन्हीं कन्धों पर आता है कि जो उसके बोझ को सँभाल सकते हैं।

८—जो लोग अपने कुल की उन्नति करना चाहते है उनके लिए कोई समय बे-समय नही है और यदि वे असावधानी से काम लेंगे तथा अपनी झूठी शान पर अड़े रहेंगे तो उनके कुटुम्ब को नीचा देखना पड़ेगा।

९—क्या सचमुच उस आदमी का शरीर, कि जो अपने परिवार को हर प्रकार की विपत्ति से बचाना चाहता है, सर्वथा परिश्रम और कष्टों के लिए ही बना है?

१०—जिस घर में सँभालने वाला कोई योग्य आदमी नहीं है, आपत्तियाँ उसकी जड़ को काट डालेगी और वह मिट्टी में मिल जायगा।