पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/३४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२०]
 

 

परिच्छेद १०६
भिक्षा

मांगो उनसे तात तुम, जिनका उत्तम कोष।
कभी बहाना वे करें, तो उनका ही दोष॥१॥
जो मिलती है भाग्यवश, बिना हुए अपमान।
वह ही भिक्षा चित्त को, देती हर्ष महान॥२॥
जो जाने कर्तव्य को, नहीं बहानेबाज।
ऐसे नर से मांगना, रखता शोभा-साज॥३॥
जहाँ न होती स्वप्न में, विफल कभी भी भीख।
कीर्ति बढ़े निज दान सम, लेकर उससे भीख॥४॥
भिक्षा से ही जीविका, करते लोग अनेक।
कारण इसमें विश्व के, दानशूर ही एक॥५॥
नहीं कृपण जो दान को, वे है धन्य धुरीण।
उनके दर्शन मात्र से, दुःस्थिति होती क्षीण॥६॥
बिना झिड़क या क्रोध के, दें जो दया-निधान।
याचक उनको देख कर, पाते हर्ष महान॥७॥
दानप्रवर्तक भिक्षुगण, जो न धरें अवतार।
कठपुतली का नृत्य ही, तो होवे संसार॥८॥
भिक्षुकगण भी छोड़ दें, भिक्षा का यदि काम।
तब वैभव औदार्य का, बसे कौन से धाम॥९॥
भिक्षुक करे न रोष तब, जब दाता असमर्थ।
कारण स्थिति एकसी, कहती नहीं समर्थ॥१०॥