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परिच्छेद १०७
भीख माँगने से भय

भिक्षुक और अभिक्षु में, कोटि गुणा का फेर।
हो बदान्य दाता भले, धन में पूर्ण कुवेर॥१॥
नर होकर भिक्षा करे, ऐसा जिसको इष्ट।
सृष्टि-विधाता वह मरे, भव में भ्रमें अनिष्ट ॥२॥
निर्लज्जों में सत्य वह, सर्वाधिक निर्लज्ज।
जो कहता मैं भीख से, कर, श्री को सज्ज॥३॥
अतिनिर्धन होकर नहीं, याचे पर से द्रव्य।
निज गौरव से अन्य ग्रह, भू भी उसे अद्रव्य॥४॥
निज कर के श्रम से मिले, भोजन बिना विषाद।
पतला भी वह नीर सम, देता अति ही स्वाद॥५॥
एक शब्द से याचना, है निन्दार्थ समर्थ।
माँगो चाहे नीर भी, गौ के ही तुम अर्थ॥६॥
भिक्षुकगण से एक मैं, माँ भिक्षा भात।
मत माँगो उनसे कभी, हीला जिनकी बात॥७॥
दाता का हीला लगे, भिक्षुक का विषघुट।
मानो वाणीपोत ही, गया शिला से टूट॥८॥
भिक्षुक--जन के भाग्य को, सोच कॅपे यह जीव।
और अवज्ञा देख फिर, मरता तात अतीव॥९॥
कहाँ निषेधक के छिपें, क्या जाने ये प्राण।
मिलते ही धिक्कार पर, निकलें याचक प्राण॥१०॥