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परिच्छेद १००
भ्रष्ट जीवन

अहो पतित ये भ्रष्ट जन, नर से दिखें अनन्य।
हमने ऐसा साम्य तो, कहीं न देखा अन्य॥१॥
आर्य विवेकी से अधिक, सुखयुत होते भ्रष्ट।
कारण मानस-दुःख का, उन्हें न व्यापे कष्ट॥२॥
अहो जगत में भ्रष्ट भी, लगते ईश समान।
रहे स्वशासित नित्य वे, इससे वैसा भान॥३॥
महादुष्ट जत्र अन्य में, देखे न्यून अधर्म
कहता वह तब गर्व से, पाप-भरे निज कर्म॥४॥
भय से अथवा लोभ से, चलते दुष्ट सुमार्ग।
चलते हैं वे अन्यथा, सदा अशुभ ही मार्ग॥५॥
अधम पुरुष पुर ढोल सम, खोलें पर की सैंन।
विना कहे पर भेद को, मिले न उनको चैन॥६॥
घूसे से मुख तोड़ दे. उसके वश में नीच।
जूठा कर भी अन्यथा, नही झटकता नीच॥७॥
एक वाक्य ही योग्य को, होता है
गन्ने सम ही क्षुद्र दें, पीड़ित हो पर्याप्त॥८॥
सुखी पड़ोसी देख खल, होता अधिक सरोष।
लाता उसपर कोई सा, निन्दित भारी दोष॥९॥
क्षुद्र मनुजपर आपदा, आजावे यदि टूट।
तो आत्मा को शीघ्र ही, बेच करे निज छूट॥१०॥