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आत्म-निवेदन

प्रस्तुत कुरल काव्य का हमें सब से प्रथम परिचय आज से ४० वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय हम बनारस के स्याद्वाद् महाविद्यालय में अध्ययन करते थे। "दैनिक पाटलिपुत्र" में उसके सम्पादक स्वनामधन्य श्रीयुत बाबू काशीप्रसाद जी जायसवाल ने कई लेख कुरल काव्य के विषय मे लिखे थे। जिन्हें पढ़कर हमारे मन में इस काव्य के प्रति अत्यधिक आदर उत्पन्न हुआ। बाबू साहब ने एक लेख में यह भी लिखा था कि "जब तक कुरल काव्य जैसे संसारप्रसिद्ध ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में न होगा तब तक उस का साहित्य-भण्डार अपूर्ण ही रहेगा।" सहपाठी मद्रासी छात्रों से यह जानकर और भी अधिक हर्ष हुआ कि यह एक जैनाचार्य की कृति है।

इन बातों से उसी समय हमारे मनमें यह विचार आया कि इस लोकोपकारी महान् ग्रन्थ का अनुवाद हिदी में पद्य में भी होना चाहिए जैसा कि वह तामिल भाषा में है। उस समय योग्यता के न होने से तथा बाद में अवकाश न मिलने से वह विचार मन में सुप्त सा बना रहा।

दैव-दुर्विपाक से जब हमारे दोनों नेत्र सहसा (सन् ४० में) एक ही रात्रि में धार में चले गये तो चिन्ता हुई कि आगे का जीवन अब किस रूप में व्यतीत किया जावे? आर्तध्यान और रौद्रध्यान में उसे व्यतीत करना तो मूर्खता की बात होगी। पवित्र जैनधर्म के सिद्धान्त और सद्‌गुरुओं के उपदेश इसी दिन के लिए हैं कि संकट में धैर्य रखकर उच्चकार्यों में शेष जीवन को लगाना चाहिए।

अतः हमने इस काव्य के अनुवाद करने की ठानी। साथ ही यह भी विचार आया कि यह "धारा" राजा भोज की नगरी है जिसमें संस्कृत के बड़े बड़े उद्‌भट विद्वान हुए हैं। अब संस्कृत में रचना का प्रवाह बन्द हो गया है, वह भी चालू रहे। इसलिए हमने