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हिन्दी के साथ ही संस्कृत में भी अनुवाद प्रारम्भ कर दिया। उसी का फल यह आपके सामने उपस्थित है। अब तक यह हमारे हाथ में था आज से हम इसे जगत के न्यायप्रिय पुरुषों के कर कमलों में दे रहे हैं।

फल में यदि कुछ मिठास है तो वह वृक्ष का ही गुण है। इस कारण इन अनुवादों की सरसता का सारा श्रेय हम अपने शिक्षादाता सद्‌गुरुओं को ही देते हैं। श्रीमान् पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के हम विशेषतः कृतज्ञ हैं जो हमें दस वर्ष की आयु में ही घरसे काशी ले गये। उन्हींके शुभ प्रसाद का यह फल है कि हम आज इस योग्य बन सके।

नेत्र जाने के पश्चात् चि॰ दयाराम ने इस युग का श्रवणकुमार बनकर जिस प्रेम के साथ हमारी परिचर्या की उसको हम ही जानते हैं। इस कुरल काव्य की रचना के समय भी उसने हमारे नेत्र और हाथ दोनों का ही काम किया। इस काव्य के प्रचार और प्रकाशन में जिन भाईयो ने हमें सहयोग दिया है उन्हें तथा निम्नलिखित सज्जनों को धन्यवाद है:—

श्रीयुत ला॰ पृथ्वीसिंह जी जैन सर्राफ व बाबू नरेन्द्रकुमार जी जैन बी॰ ए॰ देहरादून, श्रीयुत ला॰ त्रिलोकचन्द जी जैन रईस देहली, श्रीयुत पं॰ जगमोहनलाल जी कटनी, पं॰ रमानाथ जी जैन (न्या॰ व्या॰ तीर्थ) इन्दौर व भाई पं॰ परमेष्ठीदास जी (न्यायतीर्थ), श्रीयुत्त बाबू यशपाल जी जैन बी॰ ए॰, श्रीमान् माननीय राजगोपालाचार्यजी, जिन्होंने इस काव्य को ४० मिनट तक सुनने की कृपा की।

हमने अपने अनुवाद में निम्नलिखित अनुवादों का उपयोग किया है—श्रीयुत बी बी॰ एस॰ अय्यर का अंग्रेजी अनुवाद, श्रीयुत अज्ञात जी का मराठी अनवाद और श्रीयुत क्षेमानन्द जी राहत का तामिल वेद। इनके के भी हम बहुत उपकृत हैं।

क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते।"

महरौनी
(झाँसी)
गोविन्दराय शास्त्री।