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गया है। विचार के सचेत और संयत औदार्य के लिए त्रिक्कुरल का भाव एक ऐसा उदाहरण है कि जो बहुत काल तक अनुपम बना रहेगा। कला की दृष्टि से भी संसार के साहित्य में इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि यह ध्वनि काव्य है, उपमाएँ और दृष्टान्त बहुत ही समुचित रक्खे गये हैं और इस की शैली व्यङ्गपूर्ण है।

कुरलका कर्तृत्व—

भारतीय प्राचीनतम पद्धति के अनुसार यहाँ के ग्रन्थकर्ता ग्रन्थ में कहीं भी अपना नाम नहीं लिखते थे। कारण, उनके हृदय में कीर्तिलालसा नहीं थी, किन्तु लोकहित की भावना ही काम करती थी। इस पद्धति के अनुसार लिखे गये ग्रंथों के कर्तृत्व-विषयमें कभी कभी कितना ही मतभेद खड़ा हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष एक उदाहरण कुरलकाव्य है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके कर्ता 'तिरुवल्लवर' थे और कुछ लोग यह कहते है कि इसके कर्ता 'एलाचार्य' थे।

इसी प्रकार कुरलकर्ता के धर्म सम्बन्ध में भी मतभेद है। शैव लोग कहते हैं कि यह शैवधर्म का ग्रन्थ है और वैष्णव लोग इसे वैष्णव धर्म का ग्रन्थ बतलाते हैं। इसके अंग्रेजी अनुवादक डॉ॰ पोप ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि 'इसमें संदेह नहीं कि ईसाई धर्मका कुरलकर्ता पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा था। कुरल की रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं हो सकती थी यदि उन्होंने सेन्टटामस से मलयपुर में ईसा के उपदेशों को न सुना होता।' इस प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रदाय वाले कुरल को अपना अपना बनाने के लिए परस्पर होड़ लगा रहे हैं।

इन सबके बीच जैन कहते हैं कि "यह तो जैन ग्रन्थ है, सारा ग्रन्थ "अहिंसा परमो धर्म" की व्याख्या है और इसके कर्ता श्री एलाचार्य है, जिनका कि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य है।"

शैव और वैष्णवधर्म की साधारण जनता में यह भी लोकमत प्रचलित है कि कुरल के कर्ता अछूत जाति के एक जुलाहे थे। जैन लोग इस पर आपत्ति करते हैं कि नहीं, वे क्षत्री और राजवंशज हैं। जैनों के इस कथन से वर्तमान युग के निष्पक्ष तथा अधिकारी तामिल-भाषा विशेषज्ञ सहमत हैं। श्रीयुत राजाजी-राजगोपालाचार्य