पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१३८

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परिच्छद) कुसुमकुमारा १२६ बसन्त,-" मगर. तुम तो मेरी जोरू हौ न!" कुसुम,-"बेशकमगर रण्डी-पने की तासीर भी तो मेरे रोएं रोएं में समाई हुई है ! ” । इतना सुन और हँसकर बसन्तकुमार यो कहकर चुप होगया कि,-" स्वैर, तुम्हारे जी में जो आवे सो करो। निदान, अब यहां पर इसके कहने की जो कोई आवश्यकता नहीं है कि बारात ऐले धूमधाम से निकली कि देवनेवालों की तबीयत खुश होगई और महफ़िल भी खूब ही शानदार हुई । उसमें जिस ममय कु सुम्म पेशवाज पहिर कर नाचने खड़ी हुई, उस समय ऐसा ममा बैंधा कि जिसका नाम! उसका नाचना, गाना, थिरकना, भाव बतलाना और तानों का लेना ऐसा सितम ढाह रहा था कि जी कहा नहीं जा सकता। वह प्यारी प्यारीसूरत, यह बला की अदा, वह कयामन का अन्दाज़ और वह शानदार नाचना-गाना हुआ कि जिसे देखकर---जितने लोग उन्म समय उप महफ़िल में मौजूद थे. चे मी जहा के नहीं ठिठके हुए थे. मानो मानिदो रहे थे। वर को आमन्त्रण करने के लिए ठीक वक नव्याने पिना राजा कर्णसिंह अपने ज्ञाति-परिजनों के साण प ठाठ-बाट से महफिल में पधारे। यदि दूसरा समय होना तोर दुम अपने पिता को देखकर या तो बदहवास हो जाती, या मृगी-बाग के अधीन होती, पर आज अपने प्रानन्यारे बसंत के व्याह की खुशी में वह ऐमी ग्बुश- व खुर्रम हो रही थी और पेशवाज पहिरने पर आज उसके दिल ने ऐसा जोश दिखलाया था कि आज उसने अपने बाप और भाई को देवकर भी-भरी मर्जालम में उनके सामने नानने, गाने और भाव बतलाने का ऐसा अजीब जौहर दिखलाया कि महफ़िल में जितने लोग मौजूद थे, वे सभी दिल खोलकर हजार ज़बान से कसुम के लासाना इल्म और गम्भीर गुण की बड़ाई करने लगे। उन समय राजा कर्णासह ने कुसुम को कुछ इनाम देना चाहा, कुसुम ने यह कहकर उस समय कुछ भी नहीं लिया कि..- "बिदाई के वक्त कल इनाम इकट्ठा हा लेलंगी।" उम ममथ कई चीजें कुसुम ने गाई थीं पर उन में से 'मेहरा' और मुबारकबादा की ग गजलें हम यहा पर जरूर मिल दिवा