पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१४१

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१२३ स्वर्गायकुसुम । (चौतोसवा दूल्हे-बहू को बिदा करते समय अकेले में कुसुम ने बसन्त को अपने हदय से लगा कर कहा.-" लो, प्यारे ' आज मैं तुमसे उरिन बसन्त ने कहा.--" बल्कि तुम्हें यों कहना चाहिए कि, "आज मैंने तुमसे छुटकारा पाया; क्योंकि तुम मेरे मन के माफ़िक न थे, इसलिये तुम पर मेरी दिली मुहब्बत न थो; क्यो, यही बात है न ?” कुसुम ने मुस्कुराकर कहा.-" क्या खूब ' भला, यह तुम कैसे साबित कर सकते हो कि, 'मैं तुम्हें सच्चे जी से नहीं प्यार करती, या तुम मेरे मन के माफ़िक नहीं हो १, बतलाओ:" बसन्त ने हँसकर कहा,-" बस, अब तुम ज़ियादह सफाई न दिखलाओ, क्योंकि मैंने तुम्हारे दिल का हाल बिल्कुल जान लिया कुसुम,-"ऐसा ! नो फिर बतलाओ, तुमने क्या जान लिया बसन्त .. "मैने एक दिन तुम्हारा वह सफीना देखा था, जिसमें तुम अप कविता लिखा करती हो। उसमें एक जगह यह लिखा दुला मैन खा.--- 7 सखी ! प्रीति करो सुहाई। जानी नहीं, भूल भली भुलाई ।। कियो इतो हेत हियो सिराई। तो हूँ न मैं नेह-नदी नहाई॥" कुसुम यह सुन और बसन्त के गालों में दो गुलचे लगा हसकर कहने लगी, मैं नहीं जानती थी कि तुम चोट्टों की तरह घर की पाशीदा चीजें ताकते फिरते हो।" असन्त,-"हां, ठीक है; जब चोर पकडा जाता है, तो वह अपनी बला यो हो दूसरों के सिर डाला करता है : " कुसुम,--"खैर, मैं ही ऐसी सही; पर अब इन हुज्जतों से तुम्हें कपा काम है ? अब तुम मेरी बहिन पर अपनी सारी मुहब्बत निछावर कर दो और मुझे अपनी जर-खरीद लौंडी समझकर अपने कदमो के साये-तले पड़ी रहने दो। यो कहकर उसने बड़े प्यार से यसन्त का मुह चूमकर उसे ___ +m