- परिच्छेद ) कुसुमकुमारी। २४९ ____-- ---- जाते हुए देखा था। कुसुमकुमारी के भाई अनूपसिह ने अपनी बड़ी बहिन कुसुम के शोचनीय विचित्र चरित्र की सारी बातें छिपकर सुनी थी। उन बातों का ऐसा चुटीला असर उस सुकमार बालक अनूपसिंह के दिल पर हुआ कि उसी दिन-~-बल्कि उसी घडी उसके कलेजे में बड़े जोर से दर्द पैदा हुआ और बुखार चढ़ आया। इस बात की खबर तुरन्त राजा कर्णसिंह को दीगई, पर वे अपनी अभागिन लड़की चन्द्रग्रमा,उर्फ कुम्लुम के भयानक परिणाम की कहानी सुनकर इनने मर्माहत हुए थे कि उन्होंने अपने प्राणतमान पुत्र की बीमारी पर दो तीन दिनतक कुछ ध्यान ही नहीं दिया। उधर अनुपसिंह की माता का भी परलोकवास होगया था, इधर कुसुमकुमारी का हाल सुनकर पिता की यह दशा होगई थी; ऐसी दशा में बेचारे अनूपसिह की ओर कौन ध्यान देता! परंतु जब दो तीन दिन की गफलत से बीमारी बहुन जोर पकड़ गई, तब राजा कर्णसिह बहुत ही घबराए और उन्होंने बड़ी दौड़धूप करनी प्रारम्भ की। निदान, पूरी मुस्तैदी के साथ कोशिश करने से दो अठवारे में अनूपसिंह की बीमारी बहुन छ दूर होगई. पर उसे अच्छी तरह तन्दुरुस्त होने मे महीनों लगे । यद्यपि अब अनूपसिंह बिलकल अच्छा होगया था, पर अपने पिता की तरह उसके दिल में भी हरघड़ी कसमकमारी का ध्यान बना रहता था। अनूपलिह बराबर अकेले में रहने लगा था और हरदम कुसुम- कुमारी के भयङ्कर परिणाम पर सोचविचार किया करता था। उसने कई बार कुसुम के नाम कई चिट्ठियां भी लिखी थीं, पर कुछ समझबूझ कर उन्हें कुसुम के पास नहीं भेजा और जला डाला था। उसने कई दिन यह चाहा कि, अपने पिता पर यह बान प्रगट करदे कि, 'कुसुम का सारा रहस्य में सुन चुका हूं, इस लिये यह चाहता हूं कि कुसुम को प्रकाश्य रीति से ग्रहण करलं' परन्तु फिर बहुत कुच्छ ऊंच-नीच सोच विचार कर वह मन मारकर चुप हा बैठा था, पर हरदम कुसुम का कांटा उसके सकमार कलेजे में ही करता था
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