पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१६०

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परिच्छेद)

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कुसुमकुमारी।।।

मोतीसिंह ही हैं, तब कुसुम ने उनकी दौलत उन्हें लौटानी चाही, पर यह बात जानकर उन्होंने वह दौलत कुसुम ही को दान कर दी और खुद अपनी जान देदी; इस तरह वह दौलत फिर कुसुम या बसन्त के पास ही रह गई। इधर तो यह सब हुआ और उधर कुसुम अपनी एक क्वारी बहिन के मौजूद रहने का हाल सुनकर निहायत खुश हुई और उसने मन ही मन यह विचार किया कि, 'मेरे लड़के-बाले तो समाज में स्थान पावेंगेहीं नहीं, इस लिए ऐसा उपाय करना चाहिए कि मुझे तो कोई औलाद हो ही नहीं, और मेरे प्राणपति बसन्तकुमार के पुरखों का पिण्डा-पानी भी गारत न होजाय; पर यह बात तभी हो सकती है, जब बसन्तकुमार की दुसरी शादी करदी जाय। यदि ऐसा ही करना पड़े तो इस शादी के लिये मेरी हकीकी बहिन से बढ़कर दूसरी कौन लड़की होसकती है ! यदि अपनी बहिन के साथ बसन्तकुमार की शादो मैं करा सकंगी तो फिर वैसी हालन में, मैं अपनी सहोदा बहिन के साथ सौतिया- दाद भी न करूंगी और मेरी बहिन के पेट से जो बच्चे पैदा होंगे, बे भैरोसिंह या मोतीसिह की दौलत के वाजिबी हकदार होकर उसका भोग भी करगे, इस प्रकार एक दिन मैरोसिंह की सम्पत्ति ठीक ठिकाने से भी लगजायगी।' इन्हीं सब बातों पर खूब अच्छी तरह सोच-विचार करके कुसुम ने अपनी प्यारी बहिन गुलाम के साथ अपने प्राणपति बसन्त का ब्याह कराया था, यही कारण था कि आज उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था। आरे भाकर कुसुम ने बड़े धूमधाम से मार के रईसों की ज्याफल की, जिसमें श्रीमान् बाबू कुंवरसिंह भी पधारे थे। इसके अलावे हर के सब पण्डितों को पत्तल, कपड़े, और रुपये बांटे गए थे, कालों को खाने और कपड़े दिए गए थे; सारे शहर में भाजी-बायने बांटे गए थे। और बड़ी धूमधाम के साथ तीन दिनों तक ज्योनार और महफ़िल की गई थी। इन सब कामों को कुसुम ने ऐले हौसले के साथ किग कि जिसे देख कर लोग दांतों तले अंगुली दवाकर रह गए! इस महफिल में कुसुम नहीं नाची थो वहिक यो समभाना चाहिए, कि फिर वह कभी भी नही नाची।।