पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/२३

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[पाचव
स्वर्गीयकुसुम
पांचवां परिच्छेद

स्वर्गीयकुसुम पाकामकाज महतोः सुवृत्तयोः सखि, हृदयाहयोग्ययोः समस्थितयोः । सज्जनयोः स्तनयोरपि, निरन्तर सङ्कतं भवति ॥" (सुभाषितम् ) सुमकुमारी राजी-खुशी तीसरे दिन अपने घर ( आरा) पहुंच गई। घर जाकर पहिले उसने पच्चीस रुपा और एक शाल देकर मजिष्ट्रेट-साहब के अर्दली को विदा किया और अपने आदमी के हाथ मजिष्ट्रीट- साहब और सिविलसर्जन-साहब को अलग-अलग मेवे की कई डालियां भेजी । यद्यपि साहब का अर्दली रुपए या दुशाले को नहीं लेता था, पर कुसुम के बहुत आग्रह करने पर वह इन्कार न कर सका। यहां पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि अपने उसी आदमी के हाथ कुसुम ने सौ रुपए नकद और कुछ कपड़े गगाराम चौकीदार को भी भेजे थे, जिसने उसकी और वसंतकुमार की हिफाज़त की थी और थाने में खबर भेजी थी। फिर उसने अपनी मां का यथोचित क्रियाकर्म किया और जितने नौकर-मजदूरनी या सपई लोग डूबे थे, उन सभोंके घर- वालों को पांच-पांच सौ रुपए दिए और दो हजार रुपये अपनी मां के काम में लगाए। इन्हीं सब कामों में पंद्रह दिन बीत गए, तब उसने अपनी मां की कुल जायदाद पर अपना नाम चढ़वाया और बसंतकुमार की मदद से अपने दफ़तर का पूरा-पूरा इन्तजाम किया। इसमें भी दो महीने से ऊपर लगे। कुसुमकुमारी के पास इस समय दस-बारह हज़ार रुपये नकद मौजूद थे। इन्हीं रुपयों में से उसने इधर कई हजार खर्च भी कर डाले थे। उसके दो गांव आरे ही के जिले में थे. जिनसे आठ हजार रुपये की आमदनी थी और उसके एक लाख रुपये आरा