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परिच्छेद]
२५
कुसुमकुमारी


आठवां परिच्छेद
बस, अब नहीं

" उपकारोऽपि नीचानामपकारो हि जायते ।
पयः पानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् ॥

(नीतिरलावली)

दो पहर के लमय भोजन करके कुसुमकुमारी अपनी मख- मलो सेज पर लेटी हुई तुलसीकृत-रामायण पढ रही थी, इतने में एक आदामी ने आकर कहा,-"बीबीरानी ! सोनपुर के कोई थानेदार-साहव आपसे मिलने आए हैं।"

कुसुम.- ( कुछ सोचकर ) " उनसे कह दे कि बीबी सोई

ई हैं, इसलिये इस वक्त मुलाकात न होगी; अगर भेंट करना हो तो शाम को आवे।" टहलनी,-"जी : मैंने बहुत कहा, पर वे टलने को नहीं बल्कि कहते हैं कि.-' उन्हें जगाकर मेरे आने की खबर करो. क्यो कि मेरा नाम सुनते ही मुझसे मुलाकात करेंगी।' आगे आप जो कम दें, वह मैं उनसे कहूं?" कुसुम,-(चिढ़कर) "दाहरे दिमाग ! मूंआ क्या अफलातून का नाती है ! जा, कहदे कि उन्हें फुर्सत नहीं है।" यह सुनकर लौंडी चली गई और तुरत फिर आकर बोली- 'हुज़र ! वह तो बड़ा जिद्दी आदमी है! किसी तरह जाता ही नहीं और कहता है कि-'मैं बगैर मुलाकात किए यहां से न जाऊगा, चाहे तमाम उम्र इसी दर पर खड़े-खड़े क्यों न गुजर जाय; इसलिए व क्या कहूं?" कुसुम,-" अक्खाह ! मियां का दिमाग तो सातएं आस्मान पर चढा हुआ दिखाई देता है। खैर, तो मैं जरूर उससे दो-दो बातें करूंगी। तू दालान में उसके लिए चदाई डालदे और मेरी आराम- कुर्सी चटाई से अलग रखदे । मैं वहीं आती हूँ, क्योकि मुसलमान को मैं अपने फर्श पर बैठाना नहीं चाहती ” । निदान,क्रमम कसी पर आकर लिए हुए