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परिच्छेद]
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कुसुमकुमारी


ज़रा भी फुर्सत नहीं है ।

थानेदार, ― 'खैर, तो दूसरी बात भी सुन लीजिए,-अगर कोई शखस आपकी ख्वाहिश-बमूजिब पूरा मुशाहरा दे तो क्या आप नौकर रह----" कुसुम,-(भौंवे तानकर उठते-उठते) "वस, चुप रहो सोनपुर के एक नाचीज़ थानेदार का इतना बड़ा हौसला ! मियां ! तुम भले आदमी की तरह अभी यहांसे चुपचाप चले जाओ, वर न मैं बहुत बुरी तरह पेश आऊंगी और तुम्हारी सारी थानेदारी निकाल दूंगी। कभी तुमने यह भी किसी खालगी का डेरा समझ लिया है ?" थानेदार,-"हां! यह दिमाग ! अच्छा, बीबी! याद रखना ! जो मैं तुम्हारी इस शान को धूल में न मिला दूं, तो मेरा नाम नहीं !" इतना सुनते ही कुसुमकुमारी ने ज़ोर से आवाज़ दी,-' कोई हाज़िर है ?" इतना सुनते ही.-"जी हुज़र!!!"-कहते हुए पांच-सात प्यादे दौड आए और उन्हें देखकर कुसुम ने कहा,-" देखो, इस बदमाश मियां को फ़ौरन मेरी ड्योढ़ी के बाहर करदो और आज पीछे, खबर ! यह मेरे दर्वाजे पर न आने पावे!" यह सुन सभोंने कहा,-" जो हुक्म"-और फिर मियां-साहब को गर्दनियां देकर बाहर निकाल दिया। उसके जाने पर कुसुम ने अपने दफतर के मुन्शी को बुलाकर उससे एक ख़त मजिस्ट्रेट-सोहब के नाम थानेदार की शरारत के बारे में लिखवाया और उसे अपने आदमी के हाथ छपरे साहब के पास भेजा । उस ख़त का नतीजा यह हुआ कि थानेदार जन्मभर के लिये नौकरी से अलग या आजाद कर दिया गया और फिर कभी वह कुसुम के घर की ओर न आया; मगर दूर ही से जो कुछ फ़साद उसने मचाया, उसका हाल आगे कहा जायगा। कुसुमकुमारी मियांजी की बातों से क्रोध के मारे लहककर

भृत हो रही थी, इसलिये उसने अपना जी ठिकाने करने के लिये

बीन उठाकर उसके तारों को मिलाना प्रारंभ किया।