पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/७५

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स्वर्गायकुसुम। (सिवा -- बोलो,---'प्यारे तुमने सच कहा, सचमुच बात ऐसी ही है यदि तुम सच्चे प्रेमी न होते और तुम्हारा मन पवित्र न होता तो मेरा मन भी कभी तुम्हारी तरफ न खिंचता; इसलिये अब, जब कि हमारे-तुम्हारे दानो मन आपस में खिंचकर एक हो रहे है तो फिर ऐसीअवस्था मे ये दोनों तन भी अब एक होजाने चाहिएं।" कुसुम की बात सुन कर बसन्तकुमार ने कहा, "ठीक है, अब देर करने का कोई काम नहीं, पर यह बात तुम मेरी मर्जी पर छोड़ दो कि विवाह किस भांति का होगा और उसका अंजाम किस तरह किया जायगा!" कुरतुप,---"किन्तु यह यात मेरी समझ में न आई कि तुम किस तरह पर व्याह किया चाहते हो !" हमन्त..-"प्यारी ! तुम घबराओ मत! क्योंकि मैं न तो कृस्तान ई-और न मुनलमान; इसलिये तुम इस बात का यकीन रक्खो कि मैं जो कुछ करूंगा, वह अपने हिन्दूमत के अनुसार ही करूंगा।" कुसुम,-"लेकिन फिर भी मैं यह जानना चाहती हूं कि तुम किस तरीके पर शादी किया चाहने हो?" यमन्त,---( हंसकर) "खून धूमधाम के साथ !" कुसुम,---"मगर, मैं चुपचाप शादी किया चाहती है, यहां तक कि घर की मजदरनी तक भी यह न जाने कि हमलोगो का व्याह बसन्त.-"यह कयों ?" कुसुमा..." इनलिये कि चाहे मैं कैसी ही पाक-साफ़ क्यों न होऊ, पर हूं नो रडी की लड़की ही न ऐसी हालत में अगर यह बात जाहिर होजायगी और लोग हमारी-तुम्हारी शादी का हाल सुनेंगे तो तुम्हें ताना मारेंगे कि 'इमने एक रडी के साथ शादी की !" यह सुनकर बसन्त कुमार बहुत ही खुश हुआ और कुसुम के हाथ को अपने हाथ में लेकर कहने लगा,-"अहा, प्यारी ! तुम धन्य हो. इसलिये दुनिया की प्रेमिती औरतों की तुमसे प्यार करना मीखना चाहिए! आहा ! दूसरा कोई तुम्हारे प्यारे (मुझे) ताना मारे. यह भी तुम नही मह सकतीं! सो, प्यारी! तुम्ही धन्य हो और तुम्हारा ही चाहना सञ्चा है। कुसुम “मेर पहुन बढ़ावा देफर तुम मेरे मिजाज को न गोकाया और अब यह कि शादी फिस तरह हो ?