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कोड स्वराज

उसके उपयोग” पर एक पेटेंट प्राप्त किया। भारत समुचित कारणों से क्रोधित हुआ। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ. आर.ए. माशेलकर ने इस पेटेंट के खिलाफ एक बड़ी मुहिम चलाई, काफी प्रयास के बाद इस पेटेंट को रद्द किया गया।

बासमती चावल पर भी एक पेटेंट जारी किया गया था, जिसे बंगाल में हजारों साल से उगाया जाता है। यह पेटेंट अच्छी फसल उगाने के लिए चावल की बौनी किस्मों के साथ बासमती चावल की क्रॉस ब्रीडिंग पर आधारित था। यह निश्चित रूप से नवाचार नहीं है क्योंकि भारत में किसानों ने सदियों से इस उद्देश्य से क्रॉस ब्रीडिंग करके चावल उगा रहे हैं। इतना ही नहीं, पेटेंट में बासमती शब्द को भी शामिल किया गया था। इसके चलते इस शब्द का उपयोग करने पर किसानों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती थी।

जैव विवधता पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के साथ मिलकर, यह स्वीकार किया है कि वे पेटेंट जो पारंपरिक ज्ञान पर आधारित होते हैं और जिसे स्थानीय लोग काफी समय से जानते हैं, वे किसी पश्चिमी जैविक लुटेरे कम्पनियों (कॉपोरेट्स बायोपाइरेट्स) के अधिकार में नहीं आना चाहिए जो उस ज्ञान को अपने लिये हड़प लेना चाहते हैं। इस सम्मेलन ने विभिन्न देशों को एक राष्ट्रीय कानून बनाने के लिए प्रेरित किया और भारत ने वर्ष 2002 के जैव-विविधता अधिनियम बनाया। उस सम्मेलन और इस अधिनियम, दोनों का प्रमुख सिद्धांत यह है कि पश्चिमी कॉपोरेशनों को स्थानीय समुदायों के ज्ञान से कमाये आमदनी को, सिर्फ अपने लिये नहीं सीमित करना चाहिए बल्कि उसे उन स्थानीय लोगों के साथ साझा करना चाहिए।

यदि पारंपरिक ज्ञान पर पेटेंट जारी किया जाता है तो मैं इस बात के समर्थन में हूँ कि उसके लाभ को साझा करना चाहिए। इसके अलावा यदि जैविक सामाग्री को विशेष उपचारात्मक प्रभाव की जागरूकता के आधार पर, या फिर इसे किसी स्थानीय क्षेत्र में व्यापक रूप से उपजाया जाता है, तो उससे हुई आमदनी को स्थानीय समुदाय के साथ साझा करना चाहिए। जैव-विविधता अधिनियम इन सिद्धांतों को प्रतिस्थापित करता है।

हालांकि मेरी समस्या यह है कि हल्दी से लेकर बासमती चावल तक जितने भी पेटेंटों को सम्मानित किया गये थे उनमें से अधिकांश नकली थे। उन्हें जारी ही नहीं करना चाहिए था। लेकिन अब भी ऐसे रद्दी पेटेटों को जारी किया जा रहा है। परंपरागत ज्ञान डिजिटल लाइब्रेरी का सिद्धांत यह है कि इसका प्रयोग पेटेंट परीक्षक, रद्दी पेटेंटों को जारी होने से रोकने के लिए करें। डिजिटल लाइब्रेरी ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोप पेटेंट कार्यालय के साथ समझौता किया है। मैं इस विचार का पूर्णतः समर्थन करता हूँ कि पेटेंट परीक्षक को इस डेटाबेस का प्रयोग नियमित रूप से करना चाहिए। यह सकरात्मक चीज है।

लेकिन कुछ लोग यह मानते हैं कि डेटाबेस को विस्तृत स्तर पर उपलब्ध करना कुछ हद तक बुरा हो सकता है। इससे यह ज्ञान बुरे निगमों को उपलब्ध होगा जिसका वे लाभ उठा सकते हैं। टी.डी.यू के डेटाबेस को इंटरनेट पर नहीं डालने का भी यही कारण हो सकता है। मुझे यह तर्क समझ में नहीं आ रहा था। पिछले तीन दशकों से मैं जिस तरह की जानकारी को ऑनलाइन पर सार्वजनिक कर रहा हूँ, यह तर्क मेरे इस अनुभव के ठीक विपरीत था।

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