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डॉ. कविराज नागेंद्रनाथ सेनगुप्त लिखित 'औषधि की आयुर्वेदिक प्रणाली, खंड-2 बंगला भाषा में लिखी एक उत्कृष्ट किताब, जिसका अनुवाद सन् 1901 में अंग्रेजी में किया गया था, उसके एक उद्धरण से मैं काफी प्रभावित हुआ। सेनगुप्त उन वैद्यों और संस्कृत आचार्यों के वशंज थे जिन्होंने कलकत्ता में लंबे समय तक डाक्टरी की थी। इस किताब की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि “इस देश का ज्ञान विक्री के विनिमय हेतु नहीं है। हिंदु शास्त्रों के अनुसार ज्ञान की बिक्री निन्दनीय है।”

वो बातें मेरे मस्तिष्क में गूंजने लगी। मैंने जितने भी भारतीय मानकों को पोस्ट किया उन सभी के ऊपर भरत मुनि के नीतिशतकम् के शब्दों को लिखा, “ज्ञान ऐसा खजाना है जिसे चुराया नहीं जा सकता है। मुझे उन शब्दों को, वर्ष 1901 की आयुर्वेदिक पुस्तक पर देखने की उम्मीद नहीं थी लेकिन स्वाभाविक रूप से, मुझे इसके लिये आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए था।

सेनगुप्त जी ने पुनः मुझे आश्चर्यचकित किया, क्योंकि उन्होंने लॉर्ड फ्रांसिस बेकन के शास्त्रीय ग्रंथ “द एडवांसमेंट ऑफ़ लर्निंग” का उद्धरण दिया था। बेकन ने कहा ज्ञान के निर्माण का कार्य “लाभ या बिक्री की दुकान” नहीं होनी चाहिए बल्कि ज्ञान को “रचनाकार की कीर्ति का प्रचुर भंडार का द्योतक और मानवीय अवस्था को सुख चैन पहुँचाने वाला” होना चाहिए।

डॉ. सेनगुप्त उन शास्त्रीय पाठ्यों का गहराई से अध्ययन करके व्याख्या करते हैं कि यह प्राचीन काल में कैसे कार्य करते थे:

"यदि कोई व्यक्ति शिक्षा के किसी क्षेत्र में प्रवीणता हासिल किये हुए हो तो वह उस ज्ञान को इसके इच्छुक योग्य छात्रों को देने के लिए बाध्य हैं। शिक्षक अपने छात्रों को न केवल शिक्षा देंगे बल्कि जब तक वे साथ हैं उनके रहने और खाने का भी प्रबंध करेंगे। समृद्ध और भू-स्वामीगण शिक्षा प्रदान करने वालों शिक्षकों की सहायता करेंगे।"

स्वाभाविक रूप से कोई व्यक्ति इस सिद्धांत को थोड़ा संदेहात्मक रूप से देखेगा। जैसे शमनाद बशीर ने मुझे यह याद कराया था कि पहले अधिकांश ब्राह्मण धार्मिक ग्रंथों के संचार की युक्तिपूर्ण तरीके से सीमित रखते थे। यदि कोई शूद्र उसे सुन लेता था तो वे उनके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल कर सजा देते थे। लेकिन मेरा यह सुझाव है कि ज्ञान का संचार, जातिनिषेध और अन्य बाधाओं को लांघ कर किया जाना चाहिये और यह सिद्धांत भारत के इतिहास में प्रचूर मात्रा में व्याप्त था।

पारंपरिक ज्ञान पर मेरी पढ़ाई के दौरान, मेरा सामना एक और ऐसी उपाख्यान से हुआ, जिसने मुझे परेशान कर दिया। मैं ‘डॉक्टरिंग ट्रेडिशन' पढ़ रहा था, जो 19वीं शताब्दी के अंत में बंगाल में आयुर्वेदिक अभ्यासों के आधुनिकीकरण पर आधारित थी। पिछली शताब्दी की शुरुआत में, पश्चिमी चिकित्सा शिक्षा अधिक व्यापक हो गई थी, पर डाक्टरी के नए वर्गों में कई आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। उन्होंने थर्मामीटर, अणुविक्षण यंत्र

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