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कोविद-कीर्तन


दर्शकों से भर गया। कहीं तिल रखने को जगह न रही। दाक्षिणात्य पण्डित ने खड़े होकर पूर्व-पक्ष का उत्थान किया। घण्टों उसने अपने पक्ष का समर्थन करके वैदिक धर्म का श्रेष्ठत्व और बौद्धधर्म का हीनत्व प्रतिपादन किया। उसके बैठते ही दन्तदेव उठे। प्रतिपक्षो की दलीलों का खण्डन आरम्भ हुआ। उसकी एक-एक दलील दन्तदेव की अकाट्य और अखण्डनीय युक्तियों के चक्र से कट-कटकर गिरने लगी। दन्तदेव के उत्तर और प्रभाव-भरे वक्तृत्व ने उस दाक्षिणात्य पण्डित का दिल दहला दिया; वह कँपने लगा। सारी सभा में आतङ्क छा गया। अन्त को दन्तदेव ने जब "अहिंसा परमोधर्म:" की श्रेष्ठता प्रतिपादन की तब श्रोताओं पर विलक्षण प्रभाव पड़ा। विपक्षो दाक्षिणात्य पण्डित के मुँह से एक शब्द भी, उत्तर में, न निकला। उसने पराजय स्वीकार किया और सभा-स्थल छोड़कर चल दिया। यह घटना ५५४ ईसवी में हुई। बौद्धो की इस जीत का संवाद सारे भारत ही मे नहीं, चीन और तिब्बत तक में फैल गया। मगध-नरेश दन्तदेव पर बहुत ही प्रसन्न हुए। गया के पास उन्हे कुछ जायदाद देने की उन्होंने इच्छा प्रकट की। पर दन्तदेव ने कहा मुझ "भिक्षु" को धन-सम्पत्ति से क्या सरोकार ? तथापि जब राजा ने न माना तब उन्होंने गया के पास एक विहार बनवा देने की प्रार्थना की। राजा ने यह प्रार्थना ख़ुशी से क़बूल की और एक बहुत अच्छा विहार बनवाकर बुद्ध के पवित्र नाम पर अर्पण कर दिया।