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बौद्धाचार्य शीलभद्र


तब से दन्तदेव का नाम हुआ शीलभद्र। स्वार्थ-त्याग के कारण, चीन के प्रवासियों और ग्रन्थकारों ने दन्तदेव का उल्लेख इसी नाम से किया है।

यथासमय धर्मपाल ने निर्वाण पाया। उनकी जगह शीलभद्र को मिली। शीलभद्र १५१० उपाध्यायों और अध्यापकों के निरीक्षक नियत हुए। नालन्द-विश्व-विद्यालय के वे सर्वश्रेष्ठ अधिकारी हुए। शीलभद्र के अधीन अध्यापकों के तीन दरजे थे। पहले में १० अध्यापक थे जो भिन्न-भिन्न ५० प्रकार के "सूत्रो" और "शास्त्रो" मे पारड्गत थे। दूसरे दरजे मे ५०० अध्यापक थे। वे ३० प्रकार के शास्त्रो मे निष्णात थे। तीसरे दरजे मे १००० थे जो २० प्रकार के "सूत्रो" और "शास्त्रो" मे कुशल थे। इन सबके ऊपर शीलभद्र थे। शीलभद्र वैदिक और बौद्ध दोनों धर्मों के सिद्धान्तो के पारगामी विद्वान थे। विद्वत्ता मे वे अपने समय में एक ही थे।

शीलभद्र को, कोई ८३ वर्ष की उम्र मे, एक बार अवलोकितेश्वर बोधिसत्व, मैत्रेयी बोधिसत्व और मञ्जुश्री बोधिसत्व के दर्शन हुए। उस समय शीलभद्र एक दुःखद रोग से पीड़ित थे। बोधिसत्त्वो ने उन्हे वौद्धधर्म का प्रचार करने और उस धर्म मे दृढ़ विश्वास रखने का उपदेश दिया। इसके बाद वे अदृश्य हो गये। शीलभद्र का रोग भी जाता रहा। वोधिसत्वो ने चीन से आनेवाले प्रवासी हुनसॉग को बौद्धधर्म का मर्म सिखलाने की भी आज्ञा दी।