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७--खानबहादुर, शम्सुल्-उल्मा, मौलाना मुहम्मद ज़काउल्लाह

हाल मे हमारे एक मित्र ने एक किताब लिखी है। उसकी भूमिका मे उन्होंने लिखा है कि अब हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक पैदा हो गये हैं। इसका क्या मतलब है, मालूम नही। हमारी राय मे तो हिन्दी मे अभी कुछ भी नहीं है। टूटे-फूटे शब्दो मे हम जैसे दो-चार आदमी जो हिन्दी लिखते हैं उनसे काम ही कितना हो सकता है। दस-पाँच बूँद डाल देने से एक छोटा सा घडा भी नही भर सकता, समुद्र भरने का तो ज़िक्र ही नही। हिन्दी मे अभी है ही क्या ? उसका मैदान बिलकुल ही खाली पड़ा है। जिस भाषा को हम लोग देशव्यापक भाषा बनाना चाहते हैं उसकी इतनी दरिद्रता देखकर दुःख होता है। जब हम हिन्दी के साहित्य का मुकाबला उर्दू से करते हैं तब यह दुःख दूना-चौगुना हो जाता है। इसका दोष किसके सिर है? हमारे ही न! यदि हम चाहें तो बहुत जल्द इसका इलाज हो सकता है। पर हम चाहते ही नहीं। अकेले इस सूबे में हजारों आदमी ऐसे हैं जो अच्छी तरह हिन्दी लिख-पढ़ सकते हैं, अथवा बहुत थोड़े प्रयत्न से वे अच्छे लेखक बन सकते हैं। पर नहीं बनना