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मौलाना मुहम्मद ज़काउल्लाह


किया। जिस भाषा को आपने अपनी माँ का स्तन्य-पान करते समय सीखा और जिसमे आप सदा अपने माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-कलत्र से बाते करते हैं वह भाषा आपको नहीं आती! कभी अगर कोई भाषा लिखना आपको आ जाता है, तो वह छः हज़ार मील दूर के एक टापू की भाषा है। बरसों सिरखपी करके और N-o No, S-o So, रटकर जिसका आपने अभ्यास किया उसमे आप कभी-कभी कुछ लिख देते हैं तो लिख देते हैं। परन्तु उसमे भी आप ऐसी बाते लिखते हैं जिन्हें केवल आप ही के जैसे दो-चार आचार्य और उपाध्याय समझ सकते हैं, सभी अँगरेज़ी जाननेवाले नहीं। इस दशा मे हिन्दी की उन्नति क्या ख़ाक हो सकती है। समयाभाव की शिकायत बिलकुल ही निर्मूल है। इच्छा होने पर बहुत समय मिल सकता है। दस मिनट रोज़ निकालने से महीने मे पॉच घण्टे होते हैं। इतने समय मे एक छोटा ही सा लेख सही। पर आप कुछ न करेंगे। जब आपको अपने बने-बिगड़े की परवा ही नही तब आपको क्यों कभी समय मिलेगा और आप जिस हिन्दी को पैशाची भाषा से भी अधिक क्लिष्ट समझ रहे हैं उसमे लिखना सीखने की चेष्टा भी आप क्यों करेगे। ख़ैर! आज आप एक ऐसे लेखक की दो-चार बाते सुन लीजिए जो म्यूर-सेन्ट्रल कालेज मे बहुत बरसों तक अरबी-फ़ारसी के प्रोफेसर रहे। तिस पर भी उन्हे अपनी मातृभाषा मे किताबे और लेख लिखने के लिए