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राय श्रीशचन्द्र वसु बहादुर


दायभाग आदि से सम्बन्ध रखनेवाले मुकदमों में 'मिताक्षरा' आदि स्मृत्ति-ग्रन्थो के ज्ञान की बड़ी ज़रूरत पड़ती है। अतएव उन्होंने संस्कृत-व्याकरण का अध्ययन आरम्भ कर दिया। इसमें उन्होंने ऐसा परिश्रम किया कि वहुत ही थोड़े समय में वे पाणिनीय व्याकरण के पण्डित हो गये। तब उन्होंने अपने व्याकरण-ज्ञान से उन लोगों को भी लाभ पहुँचाने का विचार किया जिनके लिए केवल अँगरेज़ी भाषा के द्वारा ही इस शास्त्र के सीखने मे सुभीता हो सकता है। उन्होंने पाणिनीय अष्टाध्यायी का अनुवाद, टीका-टिप्पणी सहित, करना प्रारम्भ कर दिया और १८९१ ईसवी मे उसके प्रथमाध्याय का अनुवाद प्रकाशित भी करा दिया। इस अनुवाद को देखने का सौभाग्य हमे कभी प्राप्त नही हुआ। अतएवं इसके विषय मे हम अपनी निज की सम्मति नही दे सकते---और वसु महाशय के सदृश विख्यात विद्वान् के लेख के विषय मे हमारी सम्मति का मूल्य ही कितना हो सकता है---तथापि, सुनते हैं, संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वानों ने आपके इस अनुवाद की बड़ी प्रशंसा की है। अध्यापक मोक्षमूलर तो उसे देखकर लोटपोट हो गये। उन्होने यहाँ तक लिखा कि यदि यह अनुवाद मुझे ४० वर्ष पहले मिल जाता तो संस्कृत-व्याकरण सीखने के लिए मुझे जो सरतोड़ परिश्रम करना पड़ा था उसकी मात्रा बहुत ही कम हो जाती।

वकालत भी करना और पाणिनीय व्याकरण का अनुवाद भी करना सहल काम न था। जब वसु महाशय ने देखा कि