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कोविद-कीर्तन


किया था। पाश्चात्य देशो के बड़े-बड़े विद्वानों मे उनका बड़ा आदर था। स्याम देश के बौद्ध राजा और बड़े-बड़े धनाढ्य उनके चरणों पर अपना सिर रखते थे।

सुमङ्गलजी का जन्म १८२७ ईसवी में हुआ था। उनके जन्म के थोड़े ही समय पीछे लङ्का पर अँगरेज़ों का आधिपत्य स्थापित हुआ। उनका असली नाम था अभयवीर गुणवर्द्धन। सुमङ्गल नाम तो उस समय पड़ा जब वे साधु हुए।

चार वर्ष की उम्र मे वे अपने गॉव की पाठशाला में सिहली भाषा पढ़ने लगे। बचपन ही में उन्होंने अपनी कुशाग्र-बुद्धि का परिचय दिया। लोग उनकी चतुरता और बुद्धिमत्ता को देखकर दङ्ग रह जाते थे। उनका एक भाई उनसे बहुत बड़ा था। बहुत पहले से वह पढ़ता भी था। जिस समय सुमङ्गल ने पाठशाला मे प्रवेश किया उस समय वह कितनी ही पुस्तकें समाप्त कर चुका था। पर थोड़े ही दिनों में सुमङ्गल पढ़ने में केवल उसके बराबर ही न हो गये, किन्तु उससे आगे भी बढ़ गये। नौ वर्ष की उम्र में सुमङ्गल ने सिहली भाषा का पाठ्यक्रम समाप्त कर डाला। तब उन्होंने अँगरेज़ी पढना चाहा; परन्तु एक घटना ऐसी हो गई जिससे उन्हें, उतनी ही छोटी उम्र मे, घर-द्वार छोड़कर एक बौद्ध-मठ मे प्रवेश करना पड़ा।

उन्हों दिनों उनके माता-पिता ने एक ज्योतिषी को उनका जन्म-पत्र दिखाया। ज्योतिषी ने बताया कि सुमङ्गल अधिक