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आचार्य सुमङ्गल


उसमें पढ़ने के लिए आने लगे और अब भी बराबर आते हैं। उसमे संस्कृत, पाली और सिहली भाषाओं के साहित्य के अतिरिक्त ज्योतिष और आयुर्वेद भी पढ़ाया जाता है। कोई और कहीं का भी विद्यार्थी क्यों न हो, वह उसमें पढ़ सकता है। जाति, वर्ण या धर्म का कुछ भी खयाल नहीं किया जाता। गवर्नमेट भी उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर चुकी है और एक हज़ार रुपये वार्षिक सहायता देती है।

विद्या और धर्म का प्रचार करके ही सुमङ्गलजी चुप नहीं बैठे। उन्होंने पुस्तक रचना भी की। बौद्धो के महावंश नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ का अनुवाद उन्होंने, पण्डित बलवन्तदेव की सहायता लेकर, पाली से सिंहली भाषा मे किया। बालावतार-टीका और सिद्धान्त-संग्रह पर भाष्य भी उन्होने लिखा। इनके सिवा और भी कितने ही उपयोगी ग्रन्थ उन्होंने लिखे और कितनी ही टीका-टिप्पणियाँ बनाई।

सुमङ्गलजी की स्मरण-शक्ति गज़ब की थी। विद्यार्थि-दशा मे उन्होंने जो कुछ पढ़ा था सो तो पढ़ा ही था। जब वे दूसरो को पढ़ाते और अन्य उपकारी कामों मे लगे रहते थे तब भी उन्होने अपना अध्ययन जारी रक्खा था। अपनी धारणा-शक्ति और दृढ़ता के बल से वे भिन्न-भिन्न देशों की बारह भाषाओं के ज्ञाता हो गये। अँगरेज़ी, फ्रेंच, पोर्चुगीज़, ब्रह्मी, तैलड्गी, तामील और हिन्दुस्तानी भाषाओं को वे अच्छी तरह लिख, पढ़ और बोल सकते थे। वे गणित-शास्त्र के भी