पृष्ठ:कोविद-कीर्तन.djvu/१७

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२——विष्णु शास्त्री चिपलूनकर

गुणाधिके पुंसि जनाऽनुरज्यते
जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः।

––भारवि

साहित्य के जितने अङ्ग हैं उनमे इतिहास प्रायः सबसे श्रेष्ठ समझा जाता है। परन्तु किसी किसी का मत है कि जीवनचरित का महत्त्व इतिहास से भी बढ़कर है। जीवन-चरित से मनोरञ्जन भी होता है; व्यवहारज्ञान भी होता है; चरित-नायक के उत्कर्ष के कारणो का विचार करके उसके गुण-ग्रहण करने का उत्साह भी बढ़ता है; और साथ ही उसके किये हुए प्रमादों से बचने की सद्बुद्धि भी मनुष्य में सहज ही उत्पन्न होती है। सद्गुण किसी देश-विशेष अथवा जाति-विशेष में नहीं वास करते। सब देशो मे और सब जातियों में सद्गुणी मनुष्य और स्त्रियाँ हुआ ही करती हैं। यह ईश्वरीय नियम है। सद्गुणी पुरुष चाहे जिस देश का हो, और चाहे जिस जाति का हो उसके चरित से शिक्षा अवश्य ही मिलती है। अतएव जो लोग किसी जाति-विशेष के पुरुषों से घृणा करते हैं, अथवा उनके चरित पर अनास्था प्रकट करते हैं, उनको अपने संकुचित


जिस पुरुष मे गुणाधिक्य होता है उसी पर सब लोग अनुरक्त होते है और जनानुराग ही की कृपा से सम्पदाओं की प्राप्ति होती है।