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कोविद कीर्तन


लून से पूने चले आये और वहीं रहने लगे। उनके पिता का नाम कृष्ण शास्त्री था। कृष्ण शास्त्री पहले थोड़ी सी वेद-विद्या सीखकर विश्राम-बाग़ में नवीन स्थापित हुई एक पाठशाला में न्याय और साहित्य पढ़ने लगे और थोड़े ही दिनों मे इन दोनों शास्त्री में उन्होंने दक्षता प्राप्त कर ली। उस पाठशाला मे मोर शास्त्री नामक एक महाविद्वान् पण्डित थे; उन्ही से कृष्ण शास्त्री अध्ययन करते थे। कृष्ण शास्त्री की कुशाग्रबुद्धि और विद्या-प्रियता को देखकर मोर शास्त्री ने उन्हे "बृहस्पति" की पदवी दी थी। संस्कृत का अभ्यास समाप्त करके कृष्ण शास्त्री ने अँगरेज़ी पढ़ना आरम्भ किया और उसमे भी शीघ्र ही बहुत कुछ प्रवेश पाकर शिक्षा विभाग में वे शिक्षक का काम करने लगे। उस समय तक उनकी धन-सम्बन्धी दशा अच्छी न थी। परन्तु जब से शिक्षक का काम उनको मिला तब से उनकी वह दशा सुधर गई और वे सुख से कालक्षेप करने लगे। उन्होंने अपना काम ऐसी योग्यता से किया कि बहुत शीघ्र उनकी उन्नति हो गई। कुछ दिनों में शिक्षकों को शिक्षा देने की "ट्रेनिग स्कूल" नामक पाठशाला में वे अध्यापक नियत किये गये। अधिकारियों को कृष्ण शास्त्री की योग्यता और विद्वत्ता का साक्ष्य मिलते ही उन्होंने उन्हें मराठी-भाषा के समाचारपत्रों और पुस्तकों का रिपोर्टर नियत किया, जिस काम को उन्होने बड़ी ही चतुरता से सम्पादन किया। "शालापत्रक" नामक एक सामयिक पत्र भी वे पाठशालाओं के लिए सरकारी आज्ञा से