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विष्णु शास्त्री चिपलूनकर


निकालने लगे। यह पत्र बहुत दिनों तक प्रचलित रहा; परन्तु अन्त में उनके सुयोग्य पुत्र, विष्णु शास्त्री, के कारण बन्द हो गया। क्यों बन्द हो गया, इसका कारण हम आगे चलकर बतलावेंगे।

१८५० ईसवी मे विष्णु शास्त्री का जन्म हुआ। उनके पिता कृष्ण शास्त्री ने पहले उनको पूने के 'इन्फ़ैण्ट स्कूल' में पढ़ने भेजा। वहाँ कुछ दिन रहकर हरिपन्त नामक एक पण्डित की पाठशाला में वे मराठी पढ़ने लगे। वहीं उन्होने दो-एक पुस्तकें अँगरेज़ी की भी सीखीं। तदनन्तर वे पूने के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल में भरती हुए और अँगरेज़ी का अभ्यास करने लगे। १८६६ ईसवी मे, अर्थात् जिस समय विष्णु शास्त्री का वय केवल १५ वर्ष का था, उन्होने प्रवेशिका ( इन्ट्रेन्स ) परीक्षा पास की और पास करके पूने के डेकन कालेज मे वे प्रविष्ट हुए। लड़कपन ही से विष्णु शास्त्री को पढ़ने-लिखने का अनुराग था। उनकी बुद्धि और धारणा-शक्ति बहुत ही विलक्षण थी। वे भली भॉति चित्त लगाकर विद्याभ्यास करते थे; इसलिए स्कूल के विद्यार्थी और शिक्षकों ने उनका नाम "अभ्यासी" रक्खा था। उनका स्वभाव गम्भीर था; स्कूल मे वे कभी किसी प्रकार की गड़बड़ न करते थे। यथासमय वे सीधे स्कूल जाते और छुट्टी होने पर सीधे घर आते थे। पाठशाला में प्रवेश करने के दिन से छोड़ने तक कभी उन्होने अपना पाठ याद करने मे किञ्चिन्मान भी शिथिलता नहीं की। एक ही दो बार पढ़ने से