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कोविद-कीर्तन


लिया। उसमे सब लेख उन्हीं के आने लगे। उनके प्रसिद्ध ग्रन्य "कविपञ्चक" में जो कालिदास, भवभूति, बाण, सुबन्धु और दण्डी के विषय मे पॉच निबन्ध हैं वे दो वर्ष तक इसी "शालापत्रक' मे छपते रहे थे। यह पत्र गवर्नमेंट की सहायता से प्रकाशित होता था। इसमे कविता के विषय में लिखते समय, विष्णु शास्त्री ने, क्रिश्चियन धर्म और उसके आचार्यों के प्रतिकूल बहुत कुछ लिखा। यह बात उन आचार्यों को बहुत बुरी लगी। गवर्नमेट ही का पत्र और गवर्नमेट ही के गृहीत धर्म पर आघात! अतएव १८७३ के अन्त मे गवर्नमेंट ने "शालापत्रक" की समाप्ति कर डाली।

"शालापत्रक' को तो गवर्नमेट ने बन्द कर दिया, परन्तु विष्णु शास्त्री की विशाल लेखनी से उत्पन्न हुई विचार-धाराओं को रोकने मे वह समर्थ न हुई। क्षुब्ध हुए सिन्धु-प्रवाह को कौन रोक सकता है? "शालापत्रक" बन्द होते ही, १८७४ से, शास्त्रीजी ने क्रिश्चियन-धर्माचार्यों का एक और विशेष प्रबल शत्रु उत्पन्न किया। उसका नाम उन्होंने "निबन्धमाला" रक्खा। इसे वे प्रतिमास, मासिक पुस्तक के रूप मे, बड़ी ही योग्यता से निकालने लगे। इसमें भी उन्होने अपना पहला क्रम नहीं छोडा; दूसरों पर तीव्र कटाक्ष किये बिना वे नही रह सके। चाहे स्वदेशाभिमान की मात्रा अपने मे बहुत ही अधिक जागृत रहने के कारण उन्होंने ऐसा किया हो, चाहे और किसी कारण से किया हो, इतने कड़े लेख लिखने की