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विष्णु शास्त्री चिपलूनकर


आश्चर्य की बात ही थी। उनकी मित्र-मण्डली उनको वैसा न करने के लिए बहुधा उपदेश देती रही; परन्तु उन्होंने उस विषय मे किसी की बात न सुनी। उनका उत्तर यह था कि "प्राणरक्षा के लिए मुझे दिन मे एक बार रूखा-सूखा अन्न चाहिए। वह चाहे जहाँ मैं रहूँ और चाहे जो काम मैं करूँ, मुझे मिलेगा। मुझे अधिक की इच्छा नहीं। फिर मैं क्यों दूसरों की सेवा करूँ" धन्य सन्तोष! धन्य स्वातन्त्र्य-प्रियता!

विष्णु शास्त्री यदि अन्य अँगरेज़ी के पदवीधर विद्वानों के समान सेवा-प्रिय होते और शिक्षा-विभाग मे बने रहकर अधिकारियो को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते तो शीघ्र ही उनके वेतन की वृद्धि हो जाती; उनको उच्च पद भी मिल जाता; और किसी समय वे धन-सम्पन्न भी हो जाते। परन्तु इन बातों की उन्होने कुछ भी परवा न की। बाल्यावस्था ही से उन्होंने अपनी मातृभाषा की सेवा करने का प्रण कर लिया था। उस प्रण को धन और पद-सम्बन्धी हानि-लाभ का विचार न करके उन्होने पूरा करना चाहा और मराठी भाषा मे उत्तमोत्तम निबन्ध लिखकर उसे समृद्धि-शालिनी करने के लिए वे शीघ्र ही बद्धपरिकर हुए। वे अँगरेज़ी मे भी पारङ्गन्त थे, यदि चाहते तो उस भाषा मे भी वे अच्छे-अच्छे लेख लिख सकते थे। इण्डियन ऐण्टिक्वेरी अथवा एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल मे पुरातत्त्व विषयक प्रबन्ध लिखकर वे सुलेखकों मे अपना नाम कर सकते थे। परन्तु मराठी के सामने अँगरेज़ी को उन्होने