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कोविद-कीर्तन


तुच्छ समझा। स्वतन्त्रता के सामने परतन्त्रता को उन्होने रौरव-नरक के समान दुःखद जाना और सेवा-वृत्ति से सुखी होने के लिए अधिकारियों की चाटुकारिता करने की अपेक्षा एक ही बार भोजन करके जीवन-निर्वाह करना उन्होने अधिक सुखकर निश्चित किया। किसी जाति-विशेष अथवा देश-विशेष की उन्नति के जो-जो कारण होते हैं उनमे उस जाति अथवा उस देश की भाषा का उन्नत होना भी एक कारण है। इस बात को विष्णु शास्त्री भली भॉति समझते थे। इसी लिए सेवावृत्ति से पृथक होने पर "अध्ययन, अध्यापन, और महाराष्ट्रग्रन्थ-लेखन" मे अपना जीवन व्यतीत करने का उन्होने प्रण किया। जिस जाति में ऐसे-ऐसे उन्नताशय, ऐसे-ऐसे स्वभाषाप्रेमी और ऐसे-ऐसे अध्ययनशील पुरुष हुए, उस जाति के साहित्य की क्यों न उन्नति हो। हमारे युक्तप्रान्त के विद्वानों को ऐसे-ऐसे पुण्य पुरुषों का चरित सुनकर लज्जा आनी चाहिए। माता और मातृभाषा से उदासीन लोगो को हम समान दोषी समझते हैं। जिस भाषा को हम बाल्यकाल से बोलते हैं; जिसमे अपनी मा, अपनी स्त्री, अपनी कन्या और अपने पुत्रपौत्रादि से बातचीत करते हैं; अँगरेज़ी में पराकाष्ठा के विद्वान् होकर भी विपत्ति में जिस भाषा को छोड़ दूसरी भाषा मुख से नहीं निकलती; उससे बहिर्मुख होना बड़ी भारी कृतघ्नता है। कृतघ्नता क्या, घोर पाप है। अँगरेज़ी पढ़कर जो हिन्दी की मासिक पुस्तकों और समाचार-पत्रों से दूर भागते हैं; परन्तु पायनियर