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कोविद-कीर्तन


दृढ़ कर लिया था। सेवा और स्वतन्त्रता का अन्तर वे भलीभाँति समझ गये थे। लापलैंड के रेन-डियर नामक अतिशय शीतप्रिय हरिण को आफ़्रिका का जलता हुआ वालुकामय प्रदेश जैसा कष्टदायक होता है, स्वतन्त्रता के अभिमानी पुरुष को दूसरे के अधीन होकर रहना भी वैसा ही असह्य होता है। रत्नागिरी से चले आने पर विष्णु शास्त्री ने अपने एक मित्र को एक पत्र अँगरेज़ी मे भेजा था। उसमे उन्होने सेवा-धर्म्म को परित्याग करते समय अपने मन के विचारों को संक्षिप्त रीति पर प्रकट किया है। उस पत्र का सारांश हम नीचे देते हैं—"सरकारी सेवा बुद्धि-पुरस्सर छोड़ देना इस समय मनुष्यों को प्रत्यक्ष आत्मघात करना सा जान पड़ता है, परन्तु उस विषय मे मेरा मत बिलकुल निराला ही है। अन्यायी अधिकारियों के सामने मस्तक झुकाने की अपेक्षा उनसे सारा सम्बन्ध ही तोड़ डालना मैं अच्छा समझता हूँ। जिस समय मेरी रत्नागिरी को बदली हुई उसी समय मुझे सेवावृत्ति से पृथक् होना था। परन्तु कई कारणों से उस समय मैं वैसा नहीं कर सका। इससे तुमको विदित हो जावेगा कि रजत-शृङ्खलाओं को बहुत दिन तक न पहने रहने का मेरा पहले ही से निश्चय हो चुका था।"

विष्णु शास्त्री के ये वचन हृदय मे अङ्कित कर रखने योग्य हैं। इस विषय मे उनको दक्षिण का विद्यासागर कहना चाहिए। कलकत्ते मे शिक्षा विभाग के अधिकारियों के अन्याय