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कोविद कीर्तन


निबन्ध को लिखते थे उसके ऊपर शिरोभाग मे किसी कवि, पण्डित अथवा दार्शनिक की कोई ऐसी उक्ति रख देते थे जिसमे उनके निबन्धान्तर्गत विषय का पूरा-पूरा प्रतिबिम्ब सा झलकने लगता था। सात वर्षे तक प्रचलित रखने के अनन्तर जब उन्होंने "निबन्धमाला" को बन्द करना चाहा, तब उसके अन्तिम, अर्थात् ८४वे, अड़क् के प्रारम्भ में कालिदास के शाकुन्तल नाटक का यह श्लोक उन्होंने लिखा---

गाहन्तां महिषा निपानसलिल श्रृझैमुहस्ताडित

छायाबद्धकदम्बक मृगकुल रोमन्थमभ्यस्यतु ।

विश्रब्धं क्रियतां वराहपतिभिमुस्ताक्षतिः पल्वले

विश्रामं लभतामिदञ्च शिथिलज्याबन्धमस्मद्धनुः ।

यह पद्य उस समय का है जब राजा दुष्यन्त से कण्व मुनि के आश्रम मे मृगया न करने की प्रार्थना की गई है। उस प्रार्थना को मान देकर दुष्यन्त कहते हैं---"अपने सीगो से जल को ताड़ित करते हुए जङ्गली महिष प्रसन्नतापूर्वक सरोवरों में प्रवेश करे; वृक्षों की छाया मे बैठे हुए हरिणो के यूथ सुख से निगाली करें; बड़े-बड़े शूकर अल्प जलाशयों मे निडर होकर खाने के लिए मोथे को खोदें; और ढीली प्रत्यञ्चावाला मेरा यह धनुष भी अब विश्राम करे।" "निबन्धमाला" के इस अन्तिम अङ्क को आधा ही लिखकर विष्णु शास्त्री इस लोक को छोड़ गये। उनके परलोकवासी होने पर उनके छोटे भाई ने इस अङ्क को प्रकाशित करके यह सिद्ध सा कर दिया