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कोविद-कीर्तन


जिसे गर्व था वह अपने चित्र के लिए क्यों किसी फ़ोटोग्राफ़र को ढूँढ़ने का परिश्रम उठाता।

चित्र न मिला, न सही। पाठक, आप हमारे साथ, बनारस कालेज के हेडमास्टर के कमरे में एक मिनट के लिए चलिए और वहाँ एक व्यञ्च पर ध्यानस्थ हो जाइए। भावना कीजिए कि दस बजने मे कोई आध घण्टा बाक़ी है। इसी समय एक पालकी आती हुई देख पड़ी और वह कालेज के बरामदे में रख दी गई। पालकी दोनो तरफ़ से बन्द है। उसके एक तरफ का दरवाज़ा खुला। उससे एक पुरुष बाहर आया। उसके सिर पर बिलकुल पुरानी चाल की पगड़ी है; बदन मे बिलकुल पुरानी चाल का बालाबर अँगरखा है; उस पर एक काला चोगा है, कन्धे पर चोग़े के ऊपर घड़ी किया हुआ, बिलकुल पुरानी चाल का, सफ़ेद डुपट्टा रक्खा है। मारकीन की धोती लम्बी लटक रही है। सिर और डाढ़ी के बाल मुँड़े हुए हैं। मूँछे बड़ी-बड़ी हैं। ओठ कुछ मोटे हैं। नाक और आँखें बड़ी हैं। शरीर-लता लम्बी पर मोटी नहीं है। रङ्ग सॉवला है। ललाट पर सफ़ेद चन्दन की दो टिकलियाँ लगी हुई हैं। इस वेश और इस आकृति की वह मूर्ति कमरे के भीतर आई और अपनी कुरसी पर बैठ गई। अब तक, बिलकुल पुरानी चाल के उसके देशी जूते पालकी ही में थे। उन्हे एक चपरासी, या दफ़्तरी, उठा लाया और मेज़ के नीचे उसने रख दिया। आप यह न समझिए कि