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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र


पालकी से कमरे तक इस माननीय मूर्ति को नङ्गे पैरो चलना पड़ा। नहीं पैरो मे मोज़े हैं। बस, आपने, अँगरेज़ी-सभ्यता के साथ इतनी ही रियायत की है। परन्तु कहाँ ? पैरों मे। पाठक, भावना के बल से यदि आपने इस शब्द-चित्र को देख लिया है तो आप पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र के चित्र को देख चुके।

पण्डितजी, कान्यकुब्ज-ब्राह्मण, हिमकर के मिश्र, थे। जिस वंश को हमारे सुखदेवजी ने अपने जन्म से पवित्र किया उसी वंश की शोभा मयुराप्रसादजी ने भी बढ़ाई। कानपुर के पास काकूपुर एक गाँव है। मिश्रजी के पूर्वज वहाँ रहते थे। उनके पिता ने काकूपुर छोड़ दिया और उनाव के ज़िले में, भगवन्तनगर के पास, हमीरपुर में जाकर रहने लगे। बहुत दिनों तक वे वहा रहे। हमीरपुर से गङ्गातट कोई छ: सात मील था। उनाव ही के ज़िले मे एक गॉव बकसर है। वह गड्गा के बिलकुल किनारे है। वहाँ चण्डिका-देवी का एक बहुत पुराना मन्दिर है। मिश्रजी के एक सम्बन्धी वहा रहते थे। अतएव उनकी सलाह से, १८७० ईसवी मे, मिश्रजी ने हमीरपुर छोडा और बकसर मे घर बनवाया। मिश्रजी के पिता ने अपने पिता का गॉव छोड़ा। क्या इसी से पण्डितजी ने भी अपने पिता का गॉव छोड़ दिया? जब से मिश्रजी बकसर आये तब से वे हमारे पड़ोसी हुए। हमारे जन्म-ग्राम से यह ग्राम केवल दो मील है। पण्डित मथुराप्रसाद के पितामह का