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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र


बातें भी सुनाईं। परन्तु परीक्षा किसी तरह टली नहीं। देनी पडी। उनको कालविन साहब के डेरे पर जाना पड़ा। वहाँ साहब ने जो कुछ उनसे पूछा उसका उन्होंने ऐसा अच्छा उत्तर दिया कि साहब उन पर बहुत ही प्रसन्न हुए। इस प्रसन्नता के उपलक्ष्य मे उन्होने मिश्रजी को उनका नाम खुदवाकर एक घड़ी पुरस्कार मे दी। यही नहीं, किन्तु १८ जनवरी, १८५७, से मिश्रजी को साहब ने सेकेन्ड (दूसरा) मास्टर करके उनका वेतन १५० से २०० रुपये कर दिया। दैवयोग से उस समय यह जगह खाली थी।

पण्डित मथुराप्रसादजी ११ वर्ष तक सेकेन्ड मास्टर रहे। १८६८ ईसवी के मई महीने मे हेडमास्टरी ख़ाली हुई। उस समय डाइरेक्टर साहब की तजवीज़ यह हुई कि बरेली के स्कूल से एक मास्टर क्वीन्स-कालेज मे लाये जायँ और उन्ही को हेडमास्टरी मिले। परन्तु, उस समय, ग्रिफ़िथ साहब कालेज के प्रधान अध्यापक थे। पण्डितजी पर उनकी बेहद कृपा थी। उन्होंने प्रयाग के छोटे लाट, सर विलियम म्योर, से पण्डितजी की सिफ़ारिश करके उन्ही को हेडमास्टरी दिला दी। पण्डितजी इस पद के सर्वथा योग्य थे; और ग्रिफ़िथ साहब और गवर्नमेट ने जो कुछ किया सर्वथा न्याय्य किया। तब से पण्डितजी का मासिक वेतन ४०० रुपये हो गया।

पण्डितजी ने दस वर्ष तक बड़ी ही योग्यता से हेडमास्टरी की। जब उनको नौकरी करते ३२ वर्ष हो चुके तब, अर्थात्