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कोविद-कीर्तन


परिश्रम पड़ा। पर ग्रन्थ बहुत अच्छा बना। उन्होंने इसमे अँगरेज़ी भाषा के शब्दों की उत्पत्ति और उनके अर्थ अँगरेज़ी, हिन्दी और उर्दू मे बड़ी ही योग्यता से लिखे हैं। इसकी प्रशंसा उस समय के प्रायः सभी अँगरेज़ी-अख़बारो ने की थी। इसकी समालोचना जिसे देखना हो वह १३ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का देहली-गज़ट, १५ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का फ्रेंड आफ़ इंडिया, २४ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का वीकली न्यूज़ और २६ फ़ेब्रुअरी, १८६६ का पायनियर देखे । इँगलेंड के अख़बारो ने भी इसकी खूब प्रशंसा की थी। सचमुच पण्डितजी ने इस कोष में अपनी अपार विद्वत्ता का परिचय दिया है। यह पुस्तक उन्होंने बनारस के मेडिकल हाल-प्रेस के मालिक, डाक्टर लाज़-रस, को दे दी। उन्ही ने इसे छापा। वही प्रेस इसे अब तक बेचता है। कोशों में इसका बड़ा आदर और प्रचार है।

पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र हिन्दी के बड़े पक्षपाती थे। यह बात उन्होने अपने कोश मे अच्छी तरह स्पष्ट कर दी है। हिन्दी के विषय मे उनकी कितनी पूज्य बुद्धि थी, उसके प्रचार को वे कहाँ तक अच्छा समझते थे और उसे वे कितने विस्तार और कितनी योग्यता का जानते थे यह बात उन्होंने अपने कोश की भूमिका मे, साफ़-साफ़, लिखी है। उनके अँगरेज़ी लेख का कुछ अंश हम नीचे देते हैं----

The easiest common Hindi should be em-ployed, wherever it will suffice. But when its