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कोविद-कीर्तन


ईसवी में, ९६ वर्ष के होकर, वे परलोकगामी हुए। उनकी और्ध्वदैहिक क्रिया मिश्रजी ने विधिपूर्वक की और अन्त तक वे श्राद्ध तथा तर्पण करते रहे।

पण्डितजी बड़े ही कर्मठ ब्राह्मण थे। उनके बराबर धर्मभीरु और पुरानी चाल-ढाल का आदमी शायद ही कोई और हो। उनको छुवाछूत का बड़ा विचार था। कालेज मे ऐसे-वैसे आदमी उनके कमरे में न आने पाते थे। वे बरामदे में रहते थे और आप अपने कमरे के भीतर से उनसे बातें करते थे। पीछे से तो वे हिन्दुओं तक को छूने में हिचकते थे। एक बार हमारे एक मित्र उनसे मिलने गये। उनके डाढ़ी थी। उसे देखकर मिश्रजी ने उन्हे बाहर ही रोका; भीतर आने ही न दिया। जब उनको मालूम हुआ कि आगन्तुक व्यक्ति हिन्दू है और उनका विद्यार्थी है तब आपने उन्हें भीतर बुलाया। आगन्तुक ने भीतर जाकर भक्ति के उद्रेक मे मिश्रजी के चरणस्पर्श किये। मिश्रजी ने आशीर्वाद तो दिया, परन्तु तत्काल ही अपने सिर पर गङ्गाजल छिड़का!

मिश्रजी जब तक कालेज मे थे तब तक प्रातःकाल ४ बजे उठते थे और शौच से निवृत्त होकर, गङ्गास्नान करते थे। फिर सन्ध्योपासन और विष्णु-सहस्रनाम का पाठ करके वे लेखन और पुस्तकावलोकन में लग जाते थे। ९ बजे भोजन करके वे कालेज जाते थे और वहाँ से ४ बजे आते थे। आकर कालेज के कपड़े उतारकर उन्हें अलग रख देते थे। तब गङ्गाजल