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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र


रुपया महीना वृत्ति देने लगे थे। निर्धनता के कारण जिन हिमकर-वंशीय उपवर कन्याओं का विवाह न हो सकता था उनके विवाह के लिए भी वे रुपया देते थे। यह प्रबन्ध मिश्रजी के पुत्र पण्डित शिवनन्दनप्रसाद भी, सुनते हैं, थोड़ा-बहुत चलाये जाते हैं।

पण्डित मथुराप्रसाद बड़े ही दृढ़प्रतिज्ञ थे। आज्ञाभड़्ग से क्रोध भी उनको महाकाल ही का जैसा आता था। पढ़ने-लिखने या शायद और किसी विषय मे अपनी आज्ञा का उल्लड्घन करने के अपराध मे, उन्होने अपने एकमात्र पुत्र, शिवनन्दनप्रसाद, को अलग कर दिया और शायद अन्त तक पिता-पुत्र से प्रत्यक्ष बातचीत नहीं हुई! मिश्रजी के पिता और मिश्रजी की पत्नी ने पण्डित शिवनन्दनप्रसाद का साथ छोड़ना न चाहा। इसलिए मिश्रजी उनसे भी अलग हो गये। ये अलग रहते रहे और वे अलग। परन्तु मिश्रजी ने कमी किसी बात की नहीं होने दी। उनके आराम से रहने का प्रबन्ध आपने बहुत अच्छा किया, पीछे से उन्होने अपना यह पृथकत्व कुछ शिथिल कर दिया था।

पण्डितजी के अनन्तर उनकी जायदाद के पूरे मालिक उनके पुत्र पण्डित शिवनन्दनप्रसाद हुए हैं। वे भी सज्जन हैं; संस्कृत जानते हैं, और अँगरेज़ी मे भी उनकी कुछ गति है। वे क्या करते हैं, हम ठीक-ठीक नही जानते। सम्भव है, उन्होने कुछ ज़मीदारी इत्यादि मोल ली हो; या लेन-देन का