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कोविद-कीर्तन

प्रौढ़िप्रकर्षेण पुराणरीतिव्यतिक्रमः श्लाध्यतम. पदानाम्।

अत्युन्नतिस्फोटितकञ्च कानि वन्द्यानि कान्ताकुचमण्डलानि॥

इसके अर्थ का विचार करके आप बेतरह हँस पड़े। तब से, जब कभी हम जाते थे, दो-एक श्लोक हमसे सुने बिना आप न रहते थे। मिश्रजी को एक बात की बड़ी शिकायत थी। वे कहते थे कि हमारी तरफ़ के संस्कृतज्ञ पण्डितों का उच्चारण प्राय: बहुत ही अशुद्ध होता है। यह बात बहुधा है भी ठीक। इसी से शुद्धोच्चारणपूर्वक कहे गये श्लोक सुनकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। उच्चारण मे वे दाक्षिणात्य पण्डितों की प्रशंसा करते थे। इसी से, वे कहते थे कि पण्डित शिव-नन्दनप्रसाद को पढ़ाने के लिए उन्होने एक दक्षिणदेशीय पण्डित को रक्खा था।

पूछने पर मालूम हुआ कि तकिये के नीचे जो पुस्तक थी वह गीता थी; परन्तु थी वह अँगरेज़ी मे। इस पर हमने आक्षेप किया। आपने उत्तर दिया कि लड़कपन से हम अँगरेज़ी के प्रेमी हैं; हमारी रग-रग मे अँगरेज़ी भाषा घुसी हुई है। इस अवस्था में हमने अँगरेज़ी की और पुस्तकें देखना बन्द कर दिया है। अब सिर्फ़ गीता मे अँगरेज़ी पढ़कर हम समाधान मानते हैं।

पण्डितजी देहात मे देहातियों के साथ ऐसी अच्छी ग्रामीण भाषा बोलते थे कि सुनकर आश्चर्य होता था। जान पड़ता था कि वे महा अपढ़ और पूरे देहाती हैं।