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पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र


उत्तर मिला, कि "आप हमसे हिन्दी मे चिट्ठी लिखवाते हैं, तो क्या हम अपने नाम के आदि अक्षर भी अँगरेजी में न लिखें? हमे इनको लिखने का इतना अभ्यास है कि आपसे आप ये हमारी लेखनी से निकल जाते हैं।"

हम ऊपर लिख पाये हैं कि मिश्रजी अपने वंश की निर्धन कन्याओं के विवाह के लिए धन-सम्बन्धिनी सहायता देते थे। एक बार हमने आपसे एक कन्या के विवाह के विषय मे कहा। यह कन्या उनके वंश की न थी; पर कुलीनता में उससे बढ़कर थी। परन्तु आपने सहायता देने से इनकार कर दिया। आपने कहा कि हम अपने ही वंशवालों की सहायता करना अपना पहला कर्त्तव्य समझते हैं। पहले घरवालों की सहायता की जाती है। फिर बाहरवालो की। इस पर हमने उनके सिरहानेवाली गीता की पुस्तक के "पण्डिताः समदर्शिनः" वाले श्लोक का उनको स्मरण दिलाया। इस पर आप चुप हो रहे। परन्तु यह बात हम यहाँ पर स्वीकार करना चाहते हैं कि, इस विषय मे, भूल हमारी ही थी, उनकी नहीं।

पण्डित मथुराप्रसादजी ने अपने विषय में, अपने ही मुँह से, जो दो-एक बातें हमसे कही हैं उनको लिखकर हम इस लेख को पूरा करना चाहते हैं।

पण्डितजी के छात्रों मे अनेक ऐसे हुए जिन्होंने बहुत ऊँचे-ऊँचे पद पाये। सैयद महमूद और कुँअर भारतसिंह इत्यादि