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कोविद-कीर्तन


उन्हीं के छात्रो मे से हैं। जिस समय सैयद महमूद इलाहाबाद मे हाईकोर्ट के जज थे उस समय पण्डितजी एक बार उनसे मिलने गये। सैयद महमूद के पिता सैयद अहमद भी वहाँ मौजूद थे। सैयद महमूद के कमरे मे एक बहुमूल्य क़ालीन बिछा था। और पण्डितजी के देशी जूते धूल से लिपटे हुए थे। इससे उन्होंने जूतों को कमरे के बाहर ही उतार दिया। सैयद महमूद ने यह देखकर कुछ इशारा किया और उनके नौकर ने जूतियों को दरवाज़े के बाहर से लाकर, कमरे मे क़ालीन के ऊपर, मिश्रजी के पैरो के पास, रख दिया। इस पर पण्डितजी ने कालीन के मैले हो जाने की बात कही। तब सैयद महमूद ने यह कहकर पण्डितजी को प्रसन्न किया कि आपके इस धूल-धूसर जूते की धूल ही के प्रसाद से यह क़ालीन मुझे मय्यसर हुआ है। सैयद साहब, पिता-पुत्र दोनों, ने मिश्रजी का इतना आदर किया जितना कोई किसी देवता का करता है। उनके सत्कार से पण्डितजी बहुत ही प्रसन्न हुए। जान पड़ता है, सैयद महमूद के इतने ऊँचे पद पाने पर मिश्रजी विशेष प्रसन्न थे। यदि ऐसा न होता तो उनके घर जाने की आप कृपा न करते।

इस प्रान्त के शिक्षा-विभाग के भूत-पूर्व प्रधान अफ़सर ( डाइरेक्टर ) नेस्फ़ील्ड साहब ने अँगरेज़ी में एक व्याकरण बनाया है। उसे उन्होंने पण्डित मथुराप्रसाद को दिखलाया और उनसे उसकी समालोचना चाही। पण्डितजी ने इस