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पण्डित कुन्दनलाल


स्त्रियों की बड़ी दुर्दशा होती है। उन्हें और-और क्लेशो के सिवा खाने-पहनने का भी क्लेश उठाना पड़ता है। इस ख़याल को दूर करने के लिए भी पण्डितजी ने एक चित्र बनाया था। वह इन प्रान्तों की एक तरुण विधवा का चित्र था। यहाँ कॉच की चूड़ियाँ, नथ, बिछुवे आदि चीजों और रड्ग-बिरङ्ग कपड़ों को छोड़कर और सब चीज़े पहनने-ओढ़ने का अधिकार विधवाओं को है। खाने-पीने मे भी उन्हें कोई कष्ट नही दिया जाता। सिर के बाल भी नही मुड़ाये जाते। यही भाव इस चित्र मे दिखाया गया। चित्रगत विधवा के अवयव इस बात की गवाही दे रहे हैं कि उसे खाने-पीने की कोई तकलीफ़ नही। प्रातःकालीन स्नान और पूजन के पश्चात् यह स्त्री परमेश्वर से नित्य यही प्रार्थना करती थी कि मरने के बाद मेरा संयोग मेरे पति से फिर हो। जिस दिन का यह चित्र है उस दिन स्नान और प्रार्थना के बाद वह अपने मकान की छत पर, दीवार से लगकर, खड़ी हो गई है और पति के सोच में ध्यानस्थ सी है।

संवत् १९४८ के आरम्भ (सन् १८९१ ईसवी) से पण्डित कुन्दनलाल ने "कवि व चित्रकार" नाम का एक त्रैमासिक पत्र, फतेहगढ़ से, निकाला। उसका उद्देश कविता और चित्रविद्या की उन्नति था। चित्र भी उसमे कभी-कभी निकलते थे। उसके साथ एक बार नरगिस के स्वाभाविक पुष्प-गुच्छ का एक रङ्गीन चित्र निकला था, और एक बार सेव के पुष्प-गुच्छ