पृष्ठ:कोविद-कीर्तन.djvu/९६

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६---बौद्धाचार्य शीलभद्र

एक समय था जब भारतवर्ष के बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् चीन, लङ्का और तिब्बत आदि देशो मे जाकर विद्या और धर्म की शिक्षा देते थे। एक यह समय है कि हमीं को अन्यान्य देशों में जाकर विद्योपार्जन करना पड़ता है। पादरी साहब अब हमें यह उपदेश देने आते हैं कि तुम्हारा धर्म निःसार है; क्रिश्चियन होने ही से तुम्हे मुक्ति मिलेगी। खैर इसका कुछ रञ्ज नहीं, क्योंकि उत्थान और पतन सबके पीछे लगा हुआ है। रञ्ज इस बात का है कि हम अपने पूर्वजों की कीर्ति को, पाण्डित्य को, पराक्रम को बिलकुल ही भूल गये हैं। उसका स्मरण तक हमे नही। हम यह भी नहीं जानते कि चीन जैसे सभ्य देश के पण्डित हमारे पूर्वजों के चरणों पर मस्तक रखने और उनसे विद्या-धर्म सीखने आते थे। इन बातों के जानने के कुछ तो साधन कम रह गये हैं, कुछ हम लोगों में उनके जानने की आस्था ही नही रही। इसी से शीलभद्र के सदृश प्रख्यात पण्डित का नाम तक लोग भूल गये थे। चीन से जो प्रवासी इस देश में आये थे उनके ग्रन्थों से इस अद्वितीय विद्वान् के विषय मे बहुत सी बातें जानी गई हैं। उनके तथा दो-एक बौद्ध-ग्रन्थों के आधार पर, "डान" नामक अँगरेज़ी भाषा की मासिक पुस्तक मे शीलभद्र पर एक लेख प्रकाशित