अनुयायियों को इस नई शाखा के सिद्धान्तों का उपदेश किया था। महापण्डित नागसेन ने यहीं से अपने उपदेश के द्वारा
ग्रीक-नरेश मीनोस्ट्रेसी की शङ्काओं का समाधान करके उसके
हृदयान्धकार का नाश किया था। इसी विश्व-विद्यालय के आचार्य-पद को सुशोभित करनेवाले गुणमति बोधिसत्व ने साङ्गदर्शन का खण्डन बड़ी ही निर्दयता से करके बौद्धमत की प्रकृष्टता सिद्ध की थी। इसी विश्व विद्यालय की बदौलत प्रभामित्र नामक पण्डित ने चीन में बौद्ध-धर्म का प्रचार किया था। इसी नालन्द-विश्वविद्यालय के जिनमित्र पण्डित को तिब्बत नरेश ने अपने देश में बुलाकर बौद्ध-धर्म के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया था। चन्द्रपाल, स्थिरमति, ज्ञानचन्द्र और शीघ्रबुद्धि आदि पाण्डित्य-व्योम-मण्डल के चमकते हुए तारे वहीं उदित हुए थे।
शीलभद्र का आदि नाम दन्तदेव था। लड़कपन ही से वे विलक्षण प्रतिभाशाली और तीक्ष्णबुद्धि थे। सोलह ही वर्ष की उम्र मे उन्होंने वेद, सांख्य, न्याय और वैद्यकशास्त्र में पारदर्शिता प्राप्त कर ली। पर इतने ही से शीलभद्र को सन्तोष न हुआ। उनकी विद्या-परिशीलन की पिपासा न बुझी । उस समय नालन्द का विद्यालय भारतवर्ष मे अपना सानी न रखता था। आप वहीं पधारे। इतनी छोटी उम्र में ढाका छोड़कर आप मगध आये। उस समय महापण्डित धर्मपाल नालन्द के विद्वद्रत्न थे। वही वहाँ के सर्वश्रेष्ठ आचार्य थे।