पृष्ठ:क्वासि.pdf/१०६

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भिक्षा भर दो, प्रिय, भर दो अतरतर, विश्व वेदना के कल जल से प्राप्लावित कर दो अन्य तर, भर दो, प्रिय, भर पो अतरतर । १ छराका दो मेरी वाणी में अचर सचर की विगलित करुणा, समोद भावना रो तुम ऋग्पित कर दो यह हिय थर थर, भर दो, प्रिय, भर दो अतरतर । २ नभ जल यत्रा में अनिल अनल में करुण मोहिनी छवि दिराला दो, पुलक पुलक बह आने दो, प्रिय, मेरे गयों का लघु निर्भर, भर दो, प्रिय, गर दो अतरतर। ३ इठलाते कुसुमों का मादक परिमल मन नम में फैला है, अपनी निगुण गध किरण से चिर निभूम करो मम अम्मर, भर दो, प्रिय, गर दो अतरतर । श्रस्ती