पृष्ठ:क्वासि.pdf/११०

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छासि क्यों बजाई वेणु ? मे ये प्रश "सुलझा ही रही थी, श्रा हो रही थी। सजन, मत बजारो वेणु, यों दिक् तारा पट मागरण में दुर, सुन तुम्हारे मुरलिका स्वर सिहरते हे प्राण आतुर, मुरझ जाता है, सजन, यो हृदय का विकाम अकुर, स्वर प्रणोदन क्यों ? जग कि मे माग पर जा ही रही थी, सजन, मै आ ही रही थी। ५ उत्तर प्रगाए भूमि पर सप भान गगन चारी, यस्त चर हो गए है मम मनोरथ मनिहारी, रज कणों में ही तुम्हें नित खोजती हूँ मे विचारी, सेद्रिया में, अगुणता से नित्य उक्ता ही रही थी, सजन, में भा ही रही ची। ६ में तुम्हारे है कमी पदरा चूम, तष कमल मुख पर कभी है मत्त मम हग भृङ्ग झूमे , पूण अगीकार में था लुप्त द्विविधा प-तू मै ! विलग होकर भी मिलन के गीत में गा ही रही थी, केन्द्रीय कारागार, बरेली दिनाक ४ अगस्त ११४४ रक्षा ब धन पूणिमा पिचासी