पृष्ठ:क्वासि.pdf/१२

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था भौतिक, अतः आध्यात्मिक ? इतना ही क्यों ? हम अपने समाज में, आये दिन पुनर्जन्म के श्राश्चर्यजनक उदाहरण देखते-सुनते रहते हैं। क्या यह सब छोटे-छोटे बालकों के मन पर अज्ञान रूप से पुनर्जन्म विषयक विचारों को थोपने का परिणाम मात्र ही है ? ऐसा कहना साहस का काम होग-बिनेट कर उस अवस्था में जबकि उन बालक-बालिकाओं द्वारा दूर के ग्राम-नगर का भूगोल बता दिया जाता है, वहाँ के एक विशिष्ट घर और कुटुम्ब का हाल यता दिया जाता है और उस घर तथा कुटुम्ब के जनों के नाम भी बता दिये जाते हैं। इस देश में ऐसी एक नहीं सहस्रों घटनाएँ पटती रहती हैं। इनकी कपोल कल्पना कहकर टालना अवैज्ञानिक अथच प्रतिक्रियावादी, मनोवृत्ति का परिचय देना है। धर्म को, शरीर से श्रात्मा के पृथकत्व को “आदि बर्बरता के संकुचित्त और अज्ञान तिमिरान्ध संकल्पों" से सम्भूत मानना प्रति-गति-पूर्ण प्रतिक्रिया- बादी सिद्धान्त है। हमें दुख है कि ऋषि कार्ल मार्क्स और प्रकाण्ड विद्वान शिरोमणि फेडरिक एंगल्स ने इस प्रकार की जड़तापूर्ण स्थापना को स्वीकृत करके अपने दर्शन तत्व को गति शून्य एवं प्रतिक्रियावादी बना दिया है। इस प्रकार उन्होंने मानव प्रगति को रोक दिया है। इस दर्शन-सिद्धान्त पर जो भी साहित्य-कला-सौन्दर्य शास्त्र आधारित होगा, वह पूर्ण रूप से ग्राह्य नहीं हो सकता। इस प्रकार का शास्त्र, उस अंश तक जिस तक वह अपने को पदार्थवादी दर्शन का अलुगामी बना लेता है, मानय प्रगति को रोकने वाला, अतः मानवोन्नति-बाधक, पति-अवरोधक, अचल तथा प्रतिक्रियावादी सिद्ध होगा। इस प्रकार के साहित्य-कला-सौन्दर्य शास्त्र में केवल उसी सीमा तक गति होगी जिस सीमा तक वह जीवन के तथ्य को स्पर्श, विकसित और प्रस्फुटित करेगा। किन्तु जिस समय वह शास्त्र जीवन के तथ्य को केवल भौतिकता में बाँधने का दुराग्रह करने लगेगा, उसी समय वह - ... के रूप में प्रकट हो जायगा। हिन्दी के पालोचना-इतिहास में इसी प्रकार की प्रवणता, इसी प्रकार के मुकाव, का आविर्भाव हो गया है । यह खेद की बात है। अाज का पदार्थवादी पालोचक मानो कहता है:- साहित्य को, देखो, जिसे मैं यथार्थ, सत्' मानता हूँ उसे तुम यदि चित्रित या परिवद्धित करोगे तब तक तो ठीक है; तुम्हें मेरी प्रशंसा मिलेगी; तुम्हें मैं नासमान पर चढ़ाऊँगा; पर, याद रखो, यदि तुमने कहीं ममामह के विपरीत कोई अभिव्यक्ति की तो तुम्हें और तुम्हारी सात पीढ़ी तक को मैं